किसको गुरु मानें?

ये कितना अश्लील तरीका है कहने का कि ‘मैं गुरु बनाऊंगा’, यह करीब-करीब वैसी ही बात है कि ‘मैं ब्रह्म बनाऊंगा’। आप करोगे क्या गुरु का? गुरु आपकी क्या है? कामवाली है? टैक्सी करी जाती है ऐसे गुरु कर रहें हैं? पर यही होता है, जैसे दुकानों में जाकर आप अन्य चीज़ें करते हो, ख़रीदते हो वैसे ही आजकल गुरु-शौपिंग हो रही है — एक दुकान, दो दुकान­­, ‘मैंने ख़रीदा है!’

अंततः आप उसी को गुरु बनाते हो, जैसे आप होते हो, जैसे आप हो वैसे किसी को पकड़ लाओगे। जिसको ‘आपने’ चुना है, वो कभी भी आपको आपके चुनाव से आगे नहीं ले जा पायेगा क्योंकि वो आया ही कैसे है? वो आपके चुनाव द्वारा आया है। आपने चुना ना, तो आपको आपसे आगे कैसे ले जा पायेगा?

वास्तविक गुरु को आप नहीं चुनते, वो आपको चुनता है और आपको पता भी नहीं चलेगा कि उसने आपको क्यों चुन लिया है। वो अचानक आएगा, आपके सिर पे हाथ रख देगा, और चूँकि वो अचानक आएगा तो बहुत सम्भावना होती है कि आप उसे ठुकरा दो।

कोई गुरु आपकी स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालता, अहंकार भी यदि उन्मत्त स्वतंत्र घूमना चाहता है तो गुरु उसे घुमने देता है। गुरु आपको बस उतना ही देगा जितना लेने के लिए आप सहज भाव से तैयार हो। गुरु आपको बन्धन भी दे सकता है, नियम कायदे भी दे सकता है पर वो तभी देगा जब आप मांगो। जब आप कहोगे कि आप मुझे व्यवस्था दें और आप जो भी व्यवस्था देंगे मैं पालन करूँगा तब दे देगा, पर वो आपके पीछे नहीं दौड़ेगा व्यवस्था देने के लिए। अगर तुम इसी में खुश हो कि तुम्हें इधर-उधर दौड़ मचानी है, कूद-फांद, तो करो। वो दूर बैठा देखता रहेगा कि ‘ठीक! जब मन भर जायेगा तो आ जाना।’

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org