कितना कमाएँ, किसलिए कमाएँ?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो आप कमाई की बात कर रहे हैं कि “जो समय बीत रहा है उसमें कमाई क्या करी?” तो, क्या इसका मतलब सिर्फ जो ये षडरिपु हैं, इनसे छुटकारा है?
आचार्य प्रशांत: बस यही, और कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं। असल में, कमाई का और कोई अर्थ होता भी नहीं है।
कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय।
जो तुम्हें आगे ले जा सके, किससे आगे ले जा सके? शरीर से, प्रकृति से जो आगे को ले जा सके, उसी का नाम धन है। धन और कुछ नहीं होता। रुपये, पैसे, करेंसी (मुद्रा) को धन नहीं कहते, भाई। धन की जो व्युत्पत्ति भी है, वो क्या है?
जो तुम्हें धन्यता देदे, सो धन।
इसीलिए परमात्मा को संतजन क्या बोलते हैं? धनी साहब। क्या नाम बोलते हैं उनका? धनी।
कबीर साँचा सूरमा, लड़े धनी के हेत।
पुरजा-पुरजा कट मरे, तबहुँ ना छाड़े खेत।।
ये “लड़े धनी के हेत” माने क्या? पैसा लेकर लड़ता है? मर्सनरि (भाड़े का सैनिक) है? ये कैसी बात हो गई?
कबीर साँचा सूरमा, लड़े धनी के हेत।
कबीर साहब, सच्चा सूरमा वो है जो धनी के लिए लड़ रहा है। “धनी के लिए लड़ रहा है” माने क्या? सुपारी लेता है? ये क्या मतलब है? धनी माने कौन?
प्र: परमात्मा।
आचार्य: और जब तुम उसके लिए लड़ते हो तो शरीर की परवाह नहीं करते क्योंकि शरीर था ही इसीलिए कि उसके लिए लड़ो। तो फिर पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे, शरीर के टुकड़े-टुकड़े भी हो जाएँ, तो भी खेत — खेत माने क्षेत्र, रणक्षेत्र — को नहीं छोड़ता।