काशीविश्वनाथ मंदिर: आचार्य जी के जीवन का एक निर्णायक क्षण
1993 की गर्मियों की बात है। बोर्ड के परिणाम घोषित हुए कुछ ही समय हुआ था। आचार्य जी ने ऑल इंडिया तीसरी रैंक व यू.पी. में पहला स्थान प्राप्त किया था। सभी अखबारों में उनका नाम और तस्वीरें थीं।
लेकिन इस सांसारिक ख्याति के बावजूद, 15 साल का यह युवक मन में एक अजीब-सी बेचैनी महसूस कर रहा था। उसके लिए यह सब नया था; इतना नया कि उसे यह महसूस करने में कुछ महीने लगे कि ऐसा होना असामान्य है।
15 साल की उम्र में, सफलता और आराधना मिलने पर एक गहन मानसिक अशांति महसूस होना अक्सर किसी युवक के साथ नहीं होता। वह पूरी रात जागा करते और अंधेरी रात के आकाश को देखते। वह अपनी डायरी में अपनी मन में चल रहे मंथन को व्यक्त करने की कोशिश करते और कविताओं व श्लोकों की ओर आकर्षित होते।
भोजन का याद न रहना, कम बात करना और सबसे आश्चर्यजनक होता उनका कब्रिस्तान और मंदिरों में समय बिताना — ऐसी जगहें जिनके बारे में ज़्यादातर युवक कम ही सोचते हैं।
यह सब अचानक हो रहा था। इसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था और उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं था इसके अलावा कि जो हो रहा है उसे होने दें।
उन्हीं दिनों वह वाराणसी में स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के काशीविश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गए। यह यात्रा उनके जीवन में एक निर्णायक क्षण लाने वाली थी।
यह सोचकर कि ये तो ऐसे ही किसी मंदिर के लिए सिर्फ एक साधारण-सी यात्रा होगी, उन्होंने परिसर में प्रवेश किया। आंगन में पहुँचने के बाद वह…