काम-क्रोध से उपजता है पाप
आचार्य प्रशांत: अब, क्या कहते हैं कृष्ण?
श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।3.३७।।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं — जो तुमको तरह-तरह के पापों में ढकेलता है, उसका नाम है ‘काम’ (‘काम’ माने पाने की इच्छा)। जो तुम्हारी रजोगुणी वृत्ति है, वही तुमको हर जगह आफ़त में डालती है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३७)
रजोगुण ही क्यों बोला? तमोगुण क्यों नहीं बोला? क्योंकि बात अर्जुन से कर रहे हैं, अर्जुन तमोगुणी हैं ही नहीं।
तमोगुणी माने कौन? जो मद में पड़ा रहकर के शिथिल रहता है, सोया पड़ा रहता है नशे में। जिसे हिलना-ही-डुलना नहीं, जो कीचड़ में लोटा हुआ है और कोई शिकायत नहीं उसे, वो तामसिक है; उसके मन में अँधेरा छाया हुआ है, उसे कुछ दिख ही नहीं रहा; उसे किसी बात से कोई आपत्ति नहीं है, वो सुधरना ही नहीं चाहता, उसे बेहतर होना ही नहीं है; उसे बस नशा चाहिए, कीचड़ चाहिए और लोट जाना है — ये तमसा है। उसे कुछ नहीं पाना, उसे बस नशा चाहिए, किसी भी तरह का मद और अँधेरा, तमसा।
अर्जुन ऐसे नहीं हैं, अर्जुन राजसिक हैं। राजसिक व्यक्ति कौन होता है? राजसिक व्यक्ति वो होता है जो कुछ करके इस संसार में कुछ अर्जित करना चाहता है; वो कहता है, ‘मेरे भीतर जो अतृप्ति है, उसका समाधान इस संसार से हो जाएगा।’ दो तरह की राजसिकता होती है — एक सांसारिक और एक धार्मिक। दोनों को समझेंगे।