कामवासना बार-बार क्यों सताती है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपको सुनने के बाद जीवन में काफ़ी सुधार महसूस किया है लेकिन कामवासना की स्थिति में अभी भी असहाय रहता हूँ, ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: असहाय स्थिति तो रहेगी। जीव हो, इंसान पैदा हुए हो, संरचना ही तुम्हारी ऐसी है कि जवान होवोगे तो वासना पकड़ेगी। वह तो होगा। पर वासना भी उसको पकड़ती है ज्यादा जो पकड़ने के लिए उपलब्ध होता है।

तुम उपलब्ध मत रहो न, तुम अपनी उपलब्धता कहीं और कर दो; तुम किसी और को उपलब्ध हो जाओ। इस समय यहाँ बैठे हो। कामवासना पकड़ ले तुम्हें इसकी संभावना शून्य सी ही है। होने को कुछ भी हो सकता है, पर बहुत कम है संभावना। क्यों? क्योंकि उपलब्ध नहीं हो। क्यों उपलब्ध नहीं हो काम को? क्योंकि अभी ध्यान को उपलब्ध हो। काम आता है, तुम्हें खोजता है, कहता है, “होता तो इसका शिकार कर लेता। ये यदि मौजूद होता, ये यदि उपलब्ध होता तो मैं इसका शिकार कर लेता।” और जब भी तुम उपलब्ध होवोगे तो शिकार तो तुम्हारा हो जाएगा।

बंदर जमीन पर ही सो गया तो शेर छोड़ दो, लोमड़ी भेड़िये भी उसका शिकार कर जाएंगे। क्यों? क्योंकि वह उपलब्ध हो गया न। चढ़ गया बंदर ऊपर, शिखर पर, तो क्या ज्यादा ताकतवर हो गया? क्या अब घुसा मार कर भेड़िये को भगा देगा? है तो वो बंदर ही। अभी भी अगर पकड़ में आ जाए भेड़िए की तो मारा ही जाएगा। लेकिन अब वह मारा नहीं जाएगा क्योंकि अब वह उपलब्ध नहीं है। तुम उपलब्ध होना छोड़ दो। तुम काहे जमीन पर पड़े हो? तुम चढ़ जाओ पेड़ पर। जितना ऊपर चढ़ जाओगे, उतना तुम्हारा शिकार होने की संभावना कम होती जाएगी। ऊपर चढ़ो, ऊर्ध्वगमन।

ऊपर चढ़ने का आशय समझते हो? ऊपर वाले को उपलब्ध हो जाओ, उसके काम में नत रहो और रत रहो, फिर कामवासना, और भी पचास चीज़ें हैं, वो आएँगी जरूर, वो क्यों आएँगी? क्योंकि जीव हो तुम, उनको लिए लिए घूम रहे हो। उनको आना थोड़ी ही पड़ता है, उनको तो अपनी तुम गठरी में, इसी गठरी(शरीर) में, घट में, पोटली में बांधे घूम रहे हो।

यह भी कोई आवश्यक थोड़ी है कि तुम्हें कोई विषय दिखे तो ही तुममें वासना उठेगी। ऐसा थोड़ी ही है कि तुम्हें कोई आकर्षक स्त्री-पुरुष कुछ दिख जाए तभी तुममें वासना उठती है, तुम यहाँ जाओ जंगलों में, घूमो, सिर्फ जंगल है, पेड़ हैं, पौधे हैं, पक्षी हैं, बीच-बीच में कोई जानवर है, दूर कहीं झरना है और यह संभव है कि तुम पर वासना का आक्रमण हो जाए। तुम कहोगे, अजीब बात है यहाँ कहाँ से आ गयी? कुछ देखा नहीं, कुछ सोचा नहीं, यहाँ बैठे-बिठाए आफत कहाँ से खड़ी हो गयी? वह कहीं से नहीं आ गयी, वह तुम्हारी गठरी में मौजूद थी।

प्र: उपलब्ध न होने का अभ्यास कैसे करें?

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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