कामवासना को लेकर शर्म और डर

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मन में ये चलता रहता है कि आसपास के लोग क्या सोचते हैं। नफरत से डर लगता है। ये शायद देह की असुरक्षा का ही भाव है। इसका संबंध कामवासना से भी है, कामवासना को लेकर एक असहजता रहती है हमेशा से। बाहर प्रकट नहीं होने देता पर अकेले में पोर्न देखता हूँ और मैथुन भी करता हूँ। ऐसा लगता रहता है कि किसी से संबंध बनाकर तृप्त हो जाऊँगा पर अभी तक वो किया नहीं है, तिरस्कार का डर रहता है शायद। दूसरों को देखता हूँ और यही दिखता है कि संबंधों में तृप्ति नहीं मिलती। फिर भी मेरा भ्रम तो बना ही रहता है। कामवासना को लेकर सहज कैसे हुआ जा सकता है? वो मेरे लिए छोटी बात कैसे बन सकती है?

आचार्य प्रशांत: बीरबल की लकीर याद है न? एक लकीर छोटी करनी हो तो क्या करना होता है? उसके बगल में एक बड़ी खींच देनी होती है। ये अभी जो तुमने अपने बारे में बताया ये समस्या बिल्कुल नहीं है। जवान आदमी हो अगर दैहिक वृत्तियाँ सक्रिय हैं तो इसमें ऐसा क्या है जिसके लिए गमगीन हो रहे हो? पहली बात तो उसमें कुछ असामान्य नहीं, कुछ पाप नहीं। दूसरी बात जो कुछ हो रहा है, वो तुमने जानते-बूझते माँगा नहीं।

एक बच्चा होता है दस साल-बारह साल का, उसमें कोई अभी दैहिक वृत्ति सक्रिय नहीं होती है और फिर अगले दो-तीन साल में उसमें कामवासना सक्रिय हो जाती है। ऐसी उसने माँग करी थी क्या? फरमाइश करी थी? उसने माँगा तो नहीं था। हो गया, क्या करे वो? तो ये जो कुछ है- ये जैसा है वैसा ही रहेगा और रहता है। ये जो कुछ है वो समझ लो कि आदमी के अतीत की छाया है उसके वर्तमान पर। अतीत हमारा पाशविक है, अतीत में तमाम तरह के अनुभव हुए हैं हमको, आज का अतीत तो नहीं है न हमारा?

आदमी की जो देह है, वो तो विकास की एक बहुत लंबी प्रक्रिया से होकर आई है। आदमी को जैसा हम जानते हैं वैसा ही ज़मीन पर आए बीस लाख साल हो गये। जैसा हम आदमी को जानते हैं जब हम उसे कह सके कि मनुष्य है। वैसा ही हुए उसे बीस लाख साल बीत चुके हैं। आपके-हमारे चेहरे वाले लोग इस पृथ्वी पर पिछले बीस लाख साल से रमण कर रहे हैं और ये बीस लाख साल कुछ भी नहीं हैं। इन बीस लाख साल से पहले क्या था? उससे पहले ऐसे लोग थे जिनके चेहरे हमसे थोड़ा कम मिलते-जुलते थे पर फिर भी मिलते-जुलते थे। फिर उनसे लाखों वर्ष और यदि आप पूर्व में चले जाएँ तो और लोग मिलेंगे जिनके चेहरे हम से और भी कम मिलते-जुलते हैं पर उनको देखते हीं आप कह देंगे कि ये हैं कुछ हमारे ही बप्पा! ये बहुत दूर के नहीं हैं फिर और पीछे चले जाएँ, और पीछे चले जाएँ, तो आपको जो भी दिखाई देगा उसका चेहरा हमसे कम-कम और कम मिलने लगेगा। थोड़ा और पीछे जाएँगे तो वो दो पाया भी नहीं रहेगा, चौपाया रहेगा। थोड़ा और पीछे जाएँगे तो आप पाएँगे कि उसका रूप एकदम बदलने लग गया है, और पीछे जाएँगे तो पाएँगे कि अब वो…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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