कामवासना: अध्यात्म बनाम मनोविज्ञान
अध्यात्म तुमको बता रहा है कि — “जिसको तुम रस्सी समझ रहे हो, या सोने का हार समझ रहे हो, वो वास्तव में एक साँप है।” फ्रायड कह रहे हैं कि — “बार-बार साँप को अनुमति दे दोगे कि वो अपने बिल में ही छुपा रहे, तो ये बात तुम्हारे लिए घातक होगी।”
तुम्हारे घर में ज़हरीले साँप का बिल है। अध्यात्म तुमको वो दृष्टि दे रहा है, जिससे तुम साँप को ‘साँप’ की तरह देख पाओ। साँप कोई छुपा हुआ नहीं है — वो सामने है, पर दिखाई नहीं दे रहा।
माया इसी का नाम है ना? वस्तु तो सामने है, पर तुम उसको समझ कुछ और रहे हो। वो साँप है सामने ही, पर हम उसको माने क्या बैठे हैं? रस्सी मान बैठे हैं।
रस्सी ही मान लिया होता, तो कोई बात नहीं थी। एक साधारण-सा रस्सी का टुकड़ा है, तुमको दिख भी जाता है, तो छोड़ देते हो जहाँ पड़ा है।दिक़्क़त तब होती है जब विषैले साँप को मान लिया सोने का हार। अब क्या करोगे? उसको उठाकर के गले में डालोगे। अध्यात्म वो नज़र देता है जो माया को ‘माया’ जान सके, ताकि साँप को उठाकर के नेकलेस (गले का हार) ना बना लो। अध्यात्म ने बता दिया कि ये मत कर देना, और ये बहुत बड़ी बात है। बड़ी बात इसलिए है, क्योंकि साँप छुपा हुआ नहीं था — आपके सामने ही था।
दिक़्क़त वस्तु के ना दिखने में नहीं थी, दिक़्क़त थी देखने वाले के आंतरिक भ्रम में। वस्तु ही ना दिख रही हो, तो बड़ा झंझट नहीं है; किसी तरह से देख लोगे, और दिख गई तो बच जाओगे। लेकिन जब चीज़ दिखकर भी ना दिखती हो, तब समझ लो बुरे फँसे।