कष्ट का निवारण पता होने पर भी कष्ट से मुक्ति क्यों नहीं मिलती?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम किसी कष्ट में होते हैं, तो हमें कष्ट का निवारण पता होता है कि वहाँ से हो सकता है। लेकिन ये पता होने के बावजूद हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।

ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: नहीं पता है बेटा। कल सुन रहे थे न, गुरु साहब गा रहे थे, “सब सुख दाता राम है”? तुम्हारे जीवन में जब सुख आता है, तुम्हें ये ख्याल आता है कि तुम्हें ये सुख उस व्यक्ति से नहीं, राम से मिल रहा है? ईमानदारी से बताना। किसी दोस्त की संगति में हो, और अच्छा लग रहा है, तो यही कहते हो न कि — “दोस्त की संगति में आज अच्छा लग रहा है”? या ये कहते हो, “आज ‘राम’ के साथ था, तो अच्छा लगा’? सुख का कारण तुमने किसको बना डाला? दोस्त को। राम याद आते हैं क्या उस वक़्त?

प्रश्नकर्ता: वो ऐसे याद आते हैं, कि ‘राम’ ने ही भेजा है उस दोस्त को।

आचार्य प्रशांत: तभी फिर दोस्त के लिए रोते और तड़पते हो, ‘राम’ के लिए तो नहीं।

प्रश्नकर्ता: ऐसा नहीं। राम के लिए भी रोते हैं।

आचार्य प्रशांत: अच्छा, अपनी ज़िंदगी को देखो। अपनी ज़िंदगी को देखो को, कि किसके लिए तड़पे हो, किसका नाम ले-लेकर रोए हो।

(हँसी)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वो तो है ही। उसके साथ-साथ तड़प ‘राम’ की भी तो है।

आचार्य प्रशांत: उसके साथ-साथ नहीं हो सकती। याद रखना होता है — “कुछ सुख दाता राम है” — नहीं, “सब सुख दाता राम।” साथ-साथ नहीं होता। साथ-साथ तो घपला हो गया।

तुम्हारे जीवन में जो भी कुछ सुन्दर है, वो ‘वहाँ’ से आया है। ये बात सुख के पलों में याद नहीं रह जाती। तब लगता है कि सुख तो किसी स्त्री से मिल रहा है, या पैसे से मिल रहा है, या किसी जगह से मिल रहा है। फिर इसीलिए आदमी रोता है, कलपता है, दिल टूटता है। सुख के समय पर याद रख लो कि — ये हर चीज़ किसकी मेहरबानी से है — तो फिर दुःख नहीं मिलेगा न।

(ढलते हुए सूर्य की ओर इंगित करते हुए) देखो गया।

प्रश्न २: आचार्य जी, ये चीज़ देखने में आती है कि सोचते हम कुछ भी हों, लेकिन आपसे बात करने में बहुत सारी चीज़ें बाहर निकल आती हैं। और जाने-अनजाने बहुत-सी ऐसी गूढ़ चीज़ें निकलती हैं, जिनका कभी अहसास भी नहीं हुआ होता है। अचैतन्य में छिपी सारी चीज़ें पता चल जाती हैं, इससे अपना ही झूठ पता चल जाता है।

श्रोता १ : आचार्य जी जब झाड़ू मारते हैं, तो धूल तो दिखती ही है।

आचार्य प्रशांत: अपने आप ही नहीं निकल जाती, निकाली जाती हैं। निकालनी पड़ती है।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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