कल्पना है शहद की धार,असली प्रेम खड्ग का वार

प्रेम की भी न बस एक छवि है, एक धारणा, कि प्रेम का अर्थ है कि ‘अच्छे-अच्छे से रहना, अच्छा व्यवहार’। “अगर मैं अपने पति से प्रेम करती हूँ तो मुझे उसे दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए।” प्रेम को तुम लोगों ने ऐसे समझ रखा है जैसे कोई प्यारा सा खिलौना हो। प्रेम का नाम लेते ही खिलौने की तस्वीर आती है दिमाग में; और प्रेम होता है तलवार। तो सब उल्टा-पुल्टा चल रहा है काम। प्रेम होता है वास्तव में तलवार; वो खिलौना नहीं होता। प्रेमी वैसा नहीं होता कि ‘आओ-आओ, लो रोटी खा लो।’ वो घूस खाकर आया है और तुम घर में उसे रोटी खिला रही हो! दो जूते नहीं मार रहीं मुँह पर!

ये जो तुलसीदास हैं आपके इनकी बड़ी एक मज़ेदार कहानी है। इनकी एक पत्नी थी जिनका नाम रत्नावती था। तो उन्हें एक बच्चा हुआ था और वह बच्चा मर गया। तो रत्नावती दुःख में थीं। उन्हीं दिनों वो अपने मायके चली गयीं। अब स्त्री हैं, उन्हें दुःख होता है बच्चे का ज़्यादा। पर पुरुष की ठरक को इनसे फरक नहीं पड़ता। बच्चा-वच्चा मर गया कोई बात नहीं, पांच-दस दिन थोड़ा दुखी हो लिए। दोबारा उनपे कामोत्तेजना चढ़ गयी। तो महीना भर ही बीता होगा। वो रात में, बरसात की रात, काली, वो उसके मायके पहुँच गए। अब पहुंचे हैं रात में, बारह-एक बज रहा है। पत्नी पहली मंज़िल पर हैं, चढ़ें कैसे? सामने के दरवाज़े से जा नहीं सकते। कैसे बताएं जनता को कि मैं तो ठरक में आया हूँ बिलकुल। तो वो वहां हैं पहली मंज़िल पर। तो एक रस्सी लटक रही थी, तो रस्सी पकड़ कर वो ऊपर चढ़ गए। चढ़ गए ऊपर तो पहले तो उनकी पत्नी ने उनको जम कर के धिक्कारा कि “तुम्हें ठरक है! अपने आप को तो बर्बाद कर ही रहे हो, मेरा जीवन भी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org