कर्म-संन्यासी कर्मफल से मुक्त

कर्म-संन्यासी कर्मफल से मुक्त

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यास्याध्यात्म्चेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ।।३.३०।।

विवेक बुद्धि द्वारा समस्त कर्म तथा कर्मफल मुझ परमेश्वर में अर्पित करके निष्काम, ममता-रहित और शोक-शून्य होकर तुम युद्ध करो।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३०)

आचार्य प्रशांत: बस यही है, इस एक शब्द में कृष्ण का सारा आदेश समाहित हो गया — ‘युध्यस्व’ — ‘लड़ो।‘ जैसे पीछे के भी तीन शब्द इसी में आ गए। और उसके पहले भी एक और शब्द है — ‘कर्मसंन्यास’। संन्यास का भी यही अर्थ है यहाँ पर — ‘कर्मफल मुझे सौंप दो, तुम्हारा उससे अब कोई वास्ता नहीं रहा।’ जो चीज़ दूसरे को थमा देते हो, उसके बारे में फिर विचार वगैरह करने की कोई ज़रूरत? ‘तो कर्मफल क्या होगा, वो तुम मुझे सौंप दो’ — इसी को संन्यास कहते हैं।

और ये संन्यासी की सबसे सुंदर परिभाषा है — जिसने कर्मफल अपने हाथ से छोड़ दिया।

हाथ माने यही हाथ नहीं, ये हाथ (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए), हमारे हाथ यहाँ होते हैं। सारा काम तो यहाँ (सिर) चलता है न? तो हाथ यहाँ (सिर) होते हैं।

जिसने कर्मफल का विचार करना छोड़ दिया, वो संन्यासी है।

संन्यासी होने के लिए किसी विशेष आवरण, आचरण, परिधान आदि की ज़रूरत नहीं है। जो अपनी गहरी-से-गहरी बुद्धि-विवेक से लगता हो कि ठीक है, वो करो, और कर्मफल की न चिंता, न परवाह — वो संन्यासी है।

कर्म-संन्यास का भी यही अर्थ है। कर्म-संन्यास का अर्थ कर्म से संन्यास नहीं होता…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org