कर्म और कर्ता, विचार और विचारक!
प्रश्नकर्ता: कृष्णमूर्ति साहब सभी वृत्तियों, विचारों, भावनाओं वगैरह को बिना निर्णय के देखने को कहते हैं। ये मुझे असंभव लगता है। किसी भी विचार या भावना के उठते ही मैं या तो उसके पक्ष में हो जाता हूँ या विपक्ष में। कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: विचार जिसको उठ रहा है वो ही विचार के या तो पक्ष में होगा या विपक्ष में। विचार और उस विचार के केंद्र पर जो विचारक बैठा है ये दोनों एक ही हैं। ये दोनों ऐसे ही हैं जैसे आग और आग से फैलने वाली गर्मी या रौशनी। दोनों को अलग-अलग मत मानिए। विचारक में कोई क्षमता हो ही नहीं सकती विचार का निष्पक्ष दर्शन करने की, क्योंकि वो उसी का विचार है। विचार को तो हम कह देते हैं कि, “अरे ये बाहरी चीज़ है, प्रभावों से आया है, संस्कारित है, समाज ने मन में डाल दिया है।” विचार को ये सब कहना हमें बहुत कठिन या असुविधाजनक नहीं लगता। दिक्कत हमें तब आती है जब हमें देखना पड़ता है कि विचार तो विचार है विचारक भी नकली है। विचारक को हम नकली नहीं मानते। विचारक को तो हम ‘मैं’ मानते हैं।
आप कह तो रहे हैं कि “जब भी मुझे कोई विचार उठता है तो मैं तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में हो जाता हूँ।” यहाँ आप क्या बन गए? यहाँ आपने ज़रा भी देर ना लगाई अपने-आपको विचारक घोषित कर देने में। आप ये भूल ही गए कि अगर विचार नकली है तो विचारक असली कैसे हो सकता है। विचार, भावना, वृत्ति जो भी कहिए, मानसिक गतिविधि। वो सब मानसिक गतिविधियाँ अगर नकली हैं तो उन मानसिक गतिविधियों के केंद्र पर जो ‘मैं’ बैठा है वो तो बराबर का नकली है न, बल्कि वो तो और ज़्यादा नकली है, पहले नकली है। क्योंकि पहले वो केंद्र…