करीब आने का क्या अर्थ है?
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अहंकार को आश्वस्ति कभी नहीं होती और अहंकार से ज़्यादा आश्वस्त कोई होना नहीं चाहता।
अहंकार लगातार तरीके खोजता है किसी बात को तय कर लेने के, पक्का कर लेने के। बात जितनी तय होती है, अहंकार को एक छोर पर बड़ा सुकून मिलता है कि बात ठीक है, “मैं कुछ जान गया। मैं शांत हो सकता हूँ। मैं चैन से सो सकता हूँ।” लेकिन जितनी आश्वस्ति बढ़ती जाती है, अहंकार का खौफ भी उतना ही बढ़ता जाता है। जैसे कि तुम किसी टूटे हुए कटोरे में पानी भरने की कोशिश कर रहे हो। जितना ज़्यादा तुम पानी उसमें डालते जाओगे, उतना ही तुम्हारी निराशा बढ़ती जाएगी क्योंकि पानी का डालना ही तुम्हें यह सिद्ध कर देगा कि यह कटोरा तो कभी भी भरेगा नहीं। जिसने अभी थोड़ा बहुत ही पानी डाला, उसको अभी उम्मीद बंधी रहेगी। उसको ऐसा लगेगा कि अभी उसपर प्रयत्न करूँगा तो शायद यह कटोरा भर जाए, पर जिसने जितना भरा, उसे कहीं-न-कहीं साफ-साफ दिखता जाता है कि यह चीज़ तो भरने की नहीं है। इसका तो अंत कभी आएगा नहीं। यहाँ तो कभी चैन पाऊँगा नहीं।
आश्वस्ति का भी यही हिसाब है। तुम जितना ज़्यादा अपनी सुरक्षा बढ़ाते हो, तुम जितना ज़्यादा यह तय करने की कोशिश करते हो कि, “मुझे पता है कि क्या है, मैं कौन हूँ और दुनिया कैसी है,” तुम जितना ज़्यादा यह तय करने की कोशिश करते हो, उतना ज़्यादा तुम्हारा खौफ़ बढ़ता जाता है क्योंकि तय करने की तमाम कोशिशों के बाद भी तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर दुविधा बची हुई है। तुम्हारे भीतर संशय, संदेह बचे हुए हैं। तुम्हें खुद ही प्रमाण मिलते रहते हैं। तुम अटक-अटक जाते हो। तुम ठिठक जाते हो। निर्णय लेने से पहले सोचना पड़ता है बहुत। फँस जाते हो! यह सब इसी बात के प्रमाण हैं कि तुमने जाना नहीं और अगर तुम बहुत जानकार आदमी हो, तो यह प्रमाण तुम्हें डर से, निराशा से और कुंठा से भर देते हैं। तुम कहते हो कि अभी भी कुछ पता नहीं है मुझे। और इतना तय करने के बाद भी अगर अभी भी पक्का नहीं हुआ है तो अब आगे के लिए भी क्या उम्मीद है!
तुम्हें यह एहसास लगातार सताता ही रहता है कि, “मैं नकली हूँ, झूठा हूँ, कुछ जानता नहीं। जितना जानता हूँ वो सतही है। जितना जानता हूँ वो जीवन जीने में उपयोगी नहीं है। जितना जानता हूँ वो सत्य के सामने बिल्कुल नाकाफ़ी है। जब जीवन की चुनौतियाँ आती हैं तो मैं जैसा हूँ, मैं कहीं ठहर नहीं पाता।” यह एहसास रहता है, सताता रहता है।
तुम क्या कोशिश करते हो? जितना ही यह एहसास तुम्हें सताता है, तुम अपने आप को आश्वस्ति से उतना ही और भरते हो! तुम कहते हो, “ठीक है, यह पता कर लूँ, वो पता कर लूँ”। तुम और करोगे क्या क्योंकि तुम्हें और जीने का कोई तरीका आता नहीं! तो आप देख रहे हैं कि क्या हो रहा है? अहंकार जितना ज़्यादा दुःख और कुंठा पा रहा है, वो उतना ही ज़्यादा अपने आप को और बढ़ा रहा है। क्योंकि…