कभी भी अन्याय मत करो

प्रश्नकर्ता: अन्याय को सहना कितना ग़लत है जब पता हो कि अन्याय हो रहा है और मजबूरी है कि आवाज़ नहीं उठा सकते?

आचार्य प्रशांत: 'न्याय' शब्द समझिएगा। 'न्याय' शब्द का अर्थ होता है, साधारण भाषा में, जिस चीज़ को जहाँ होना चाहिए, उसका वहीं होना। जो चीज़ जहाँ हो, अगर वहीं है, तो न्याय है। तो अध्यात्म की दृष्टि से अन्याय सिर्फ़ एक होता है – मन का आत्मा से विमुख हो जाना। मन को कहाँ होना चाहिए?

श्रोतागण: अपने केंद्र पर।

आचार्य: अपने केंद्र पर। केंद्र का नाम?

श्रोता: आत्मा।

आचार्य: मन अगर शांत है तो न्याय है। मन को शांति में स्थापित रहना चाहिए। मन अगर शांत है तो न्याय है। अन्याय कब है? जब बाहर होती कोई घटना आपको अशांत कर जाए।

जो कुछ भी बाहर चल रहा है, अगर वो आपको अशांत कर रहा है, तो कुछ करिए। अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्य का उपयोग करिए। कुछ बदलना चाहिए, क्योंकि अभी जो है, वो ठीक नहीं है। कुछ है जो आपको उद्वेलित कर रहा है, हिला-डुला दे रहा है, कम्पित कर रहा है, परेशान कर रहा है – अगर ये आपकी हालत है, तो इस हालत को बदलना होगा। और अगर ये हालत नहीं है, तो कुछ भी बदलने की ज़रूरत नहीं है, फिर आप न्याय-अन्याय की फ़िक्र छोड़िए।

ये छोड़ दो कि बाहर जो हो रहा है, वो न्याय है कि अन्याय है, कि आपके साथ न्याय हो रहा है कि नहीं। ये हटाओ। जो कुछ भी हो रहा है, उसके मध्य अगर आप शांत हो और शीतल हो, तो कुछ बदलने की ज़रूरत नहीं है। पर जो हो रहा है, वो भले ही कितना न्यायोचित लगे, पर आपको अगर विकल कर जाता है, तो वो ठीक नहीं है, वो फिर अन्याय ही है।

जो आपको अशांत कर दे, वो आपके साथ अन्याय हुआ। अशांति का विरोध करना है। अशांति की स्थिति को बदलना है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org