कब हटेगी हिंसा?

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जु मान हमार।
जाका गल तुम काटिहो, सो फिर काटि तुम्हार।।

~ संत कबीर

जिसका गला तुम काट रहे हो, वो फ़िर तुम्हारा गला काट रहा है।

हम अपनेआप को जो समझते हैं, जो जानते हैं, वो काटने के अलावा कुछ और कर नहीं सकता क्योंकि कटा होना ही उसका अस्तित्व है। इतना ही कह रहे हैं कबीर कि दूसरे को काटने के लिए पहले तुम्हें दूसरे से कटना पड़ेगा। दूसरे के साथ कुछ भी करने के लिए, दूसरे को दूसरा घोषित भी करने के लिए तुम्हें पहले दूसरे से अपनेआप को काटना पड़ेगा। अब बताओ कटा कौन, दूसरा या तुम?

कटाव तो उसी वक़्त हो गया जिस क्षण तुमने दूसरा पैदा किया, दूसरा घोषित किया, दूसरे को दूसरा कहा। अर्थ इसका ये मत कर लीजिएगा कि तुम किसी का यदि गला, इत्यादि काट रहे हो तो वो पलट करके आएगा किसी रूप में, तुमको कष्ट देने के लिए, तुम्हें परेशान करने के लिए, कि बदले का खेल चलेगा।

जाका गल तुम काटिहो, सो फ़िर काटि तुम्हार।

डरा नहीं रहे हैं, यह नहीं कह रहे हैं कि दूसरे के साथ अच्छा करो ताकि वो तुम्हारे साथ अच्छा कर सके, ये तो लाभ-हानि का गणित हो गया। अगर यही बात होती तो फ़िर तो अगर अपना गला कटने का भय ना होता तो दूसरे का गला काटना वाजिब हो जाता। फ़िर तो ये कहा जाता कि दूसरे को हानि न पहुँचाने के पक्ष में एकमात्र तर्क तुम्हारे स्वार्थ का है, कि दूसरे को हानि पहुँचाओगे तो खुद भी हानि पाओगे। न पहुँचती होगी दूसरे को हानि, तो फ़िर तो सब चलेगा, सब वाजिब है, नहीं वो बात नहीं है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org