‘कण-कण में भगवान्’ का असली अर्थ क्या है?
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अध्यात्म में इस मुहावरे का बहुत उपयोग किया जाता है कि कण-कण में, लोगों में भगवान को देखो। इसका क्या मतलब है या ये सिर्फ बोलने की बात है?
लोगों में भगवान को देखने का अर्थ है लोगों को भगवत्ता के केंद्र से देखो। लोग तुम्हें वैसे ही दिखाई देंगे जैसे तुम हो। एक गाय चली आ रही है तुम बछड़े हो तुम्हें क्या दिखाई देगा — माँ।
तुम जो हो उसी के अनुसार तुम्हें दुनिया दिखाई देती है।
अब अगर तुम्हें नर-नर में नारायण को देखना है तो तुम्हें क्या होना होगा — नारायण। तो तुम्हारे भीतर जो नारायण हैं उस पर केंद्रित होकर देखो।
नारायण को देखने दो वो नारायण को ही देखेगा। इंसान देखेगा, इंसान को ही देख पाएगा। हम जो होते हैं, हमारे लिए संसार बस वैसा ही हो जाता है।
नर में, नारी में, रेत में, पहाड़ में, कीड़े में, अंधेरे में, रोशनी में नारयण का वजूद तो हर जगह है। हर जगह वही-वही है, उसके अलावा किसकी हस्ती, किसकी सत्ता। लेकिन तुम्हें वो नहीं दिखेगा। तुम अंश होकर देखोगे, तुम जैसे अंश बने हो, तुम्हें उसका विपरीत अंश दिखाई देने लग जाएगा। बस पूर्ण का कोई विपरीत नहीं होता, हर अंश का विपरीत होता है। तुम काले होकर देख रहे हो, तुम्हें सफेद दिखना चालू हो जाएगा, आकर्षित करने लग जाएगा।
हर अंश का विपरीत इस संसार में उप्लब्ध है, यह संसार अंशों का ही तो मेला है इसीलिए कहते हैं संसार भांति-भांति के द्वैतों का संकलन है।
बस पूर्ण का कोई विपरीत नहीं है, जब पूर्ण होकर के देखते हो तो हर जगह नारायण ही नारायण है। मतलब समझना इसका नारायण को देखने का अर्थ होता है उसको देखना जो शांति दे, असली शांति।
अंश जब भी देखेगा पहली बात वो दूसरे अंश को देखेगा और दूसरी बात जिसको भी देखेगा, जलेगा, भुनेगा और उपद्रव मचेगा उसमें। पूर्ण मात्र ऐसा है जिसको देखकर उपद्रव नहीं मचेगा, शांति मिलेगी।
शांत तुम तभी हो सकते हो जब तुम्हें तलाश नहीं है, अंश को तो हमेशा तलाश रहेगी। अंश, अंश को तलाशेगा, शांति की खातिर और शांति की जगह पाएगा अशांति।
नारायण को देखने का मतलब है हम पूर्ण हैं, पूर्ण को ही देखते हैं और कोई अशान्ति हममें उठती नहीं, ठीक वैसे जैसे नारायण को देखकर अशांति नहीं उठती।
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