कड़वे अनुभवों के बाद भी कामवासना मरती क्यों नहीं?

शरीर को तो सदा गति करनी ही है। शरीर अपने जैविक संस्कारों का और प्रकृतिगत गुणों का दास है। शरीर तो चलेगा — ‘चलती का नाम गाड़ी’। तुम शरीर को मान लो कि जैसे एक गाड़ी है जिसको चलना-ही-चलना है। श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय और तीसरे अध्याय में भी श्रीकृष्ण, अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि, “प्रकृति में ऐसा कुछ नहीं है जो गति ना कर रहा हो,” — गति ना कर रहा हो माने, ‘कर्म’ ना कर रहा हो — “तो तुझे भी अर्जुन कर्म तो करना ही पड़ेगा, कर्म से तू भाग नहीं सकता।”

शरीर को अगर एक गाड़ी मानिए तो इस गाड़ी को तो गति करनी ही है, कर्म करना ही है, चलना तो है ही। लेकिन जब हम मनुष्य की बात करते हैं, तो उसकी ये जो गाड़ी है, ये पूरे तरीक़े से स्वचालित नहीं है। ये ऐसी गाड़ी नहीं है जो ख़ुद ही किधर को भी चल दे, या जिसमें पहले से ही कोई प्रोग्राम एंबेडेड है, कि कोई बैठा हुआ है जो इस गाड़ी की दिशा निर्धारित करता है।

जानवरों की गाड़ी तो ऐसी ही होती है, वो प्री-प्रोग्राम्ड गाड़ी होती है, वो एक पूर्व-संस्कारित गाड़ी होती है। उस गाड़ी के जन्म के साथ ही ये तय हो चुका होता है कि वो किस दिशा जाएगी, कौन-से मोड़ लेगी, कितनी तेज़ भागेगी, ये सारी बातें। आदमी की गाड़ी में चालक, ड्राइवर की सीट पर ‘चेतना’ बैठी हुई है। चेतना का काम है ये देखना कि ये गाड़ी कहाँ को जा रही है।

तो अब आदमी के पास दो तरह की ताक़तें हो जाती हैं।

एक तो जो उसकी गाड़ी के भीतर पहले से ही प्रोग्रामिंग या संस्कार बैठे हुए हैं, जो उसको चलाना ही नहीं चाहते; एक

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org