ऐसे होते हैं उपनिषदों के ऋषि

आचार्य प्रशांत: थोड़ी विचित्र है मनुष्य की स्थिति। रहना उसे शरीर में ही है, रहना उसे जगत के साथ ही है। पर सिर्फ़ शरीर बनकर रहता है तो मौत का डर सताता है, अपने चारों तरफ़ और ऊपर और नीचे अगर सिर्फ़ जगत को ही पाता है तो बेचैन हो जाता है, न शरीर छोड़ सकता है, न दुनिया छोड़ सकता है, न शरीर और दुनिया में वो चैन पाता है। ये वो मूल समस्या है जिसे उपनिषद् संबोधित करते हैं।

“हमारी मूल धारणा क्या हो? हम अपने आप को क्या जानें? हमारा खुद से और संसार से रिश्ता क्या हो? जिएँ कैसे?” इसका उत्तर देते हैं उपनिषद्।

तो वो कह रहे हैं कि, “तुम्हारे ही भीतर कुछ है जो तुम्हारे जैसा बिल्कुल नहीं है।” गौर करिएगा। “तुम्हारे जैसा बिल्कुल नहीं है लेकिन तुमसे पराया नहीं है, तुम्हारे ही भीतर है।”

तो तुम शरीर हो, शरीर बीमार हो जाता है, बूढ़ा हो जाता है। लेकिन ये जो शरीरी है, जो देही है, जीव है, इसी के केंद्र में कोई बैठा है जो ना बीमार होता है, ना बूढ़ा होता है। और उसकी बात करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि उसकी बात नहीं करोगे तो या तो खुद को ठगते हुए जियोगे, कि अपने आप को कभी याद नहीं आने दोगे कि तुम्हारा अंजाम क्या होने वाला है, क्योंकि अंजाम तो शरीर का एक ही है, मौत।

अगर बहुत खुशी-खुशी जीना है तो बहुत ज़रूरी हो जाता है बहुत लोगों के लिए कि वो अपने हश्र को जबरन भुलाए रहें, कि मौत को ज़रा भी याद ना आने दें, कि अपने आसपास माहौल ऐसा निर्मित कर लें जिसमें मौत की अनिवार्य स्मृति के लिए कोई जगह ही ना हो। एक तो तरीका ये है, झूठी खुशी का।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org