ऐसा प्रेम खतरनाक है
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपना जीवन औरों को समर्पित किया है। उन्हें हम महात्मा कहते हैं, हीरो कहते हैं, अवतार कहते हैं, महापुरुष कहते हैं। इन लोगों ने औरों को अपने आप से ऊपर रखा है। लेकिन मैंने अपने कुछ लोगों का एक दायरा बनाया हुआ है, मेरा निकट परिवार। इसके अलावा मैं किसी और के लिए संवेदना नहीं रखता, चाहे वो और लोग हों, चाहे जानवर हों या बाहर का कोई भी। क्या ये गलत है? और क्या इसको ठीक करा जा सकता है? क्या इसको ठीक करना जरूरी है? क्या मुक्ति की राह पर आगे बढ़ने के लिए संवेदनशील होना ज़रूरी है? खास तौर पर औरों के लिए, या जानवरों के लिए, या पेड़ों के लिए?
आचार्य प्रशांत: ये भ्रम है। आपको इसमें जो भेद ही दिख रहा है, अपने छोटे दायरे और बाहर की दुनिया के बीच में, ये भ्रम है। तो इस सवाल को ही अगर गौर से देखेंगे तो वहीं से समाधान निकल आएगा।
सब सवालों में ऐसा ही होता है। सवाल अगर कोई पूरी तरह सही होता तो वह सवाल नहीं होता। अगर कोई सवाल ऐसा होता जो अपने आप में कोई विरोधाभास न समेटे होता तो फिर तो वह सवाल ही नहीं होता न। सवाल का मतलब ही है कि उसमें कहीं कोई आंतरिक विरोधाभास है। उसके भीतर ही कुछ बेमेल है। उसके भीतर ही कहीं कोई चोट है, कोई खोट है, कोई खंड है, तभी तो वह सवाल है। अन्यथा वह सवाल ही क्या बन जाए? समाधान न? इसीलिए जानने वालों ने हमें कहा है कि भीतर से उठते सवालों से घबरा करके जल्दी ही बाहर उत्तर खोजने मत भाग लिया करो। सवाल में ही समाधान बैठा हुआ है। हर सवाल कुछ मान्यताओं पर आधारित होता है। हर सवाल के पीछे छुपे होते हैं कुछ बुनियादी उसूल, सिद्धांत, जो हमें…