एलोपैथी दवाइयाँ, हिंसा और अध्यात्म
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या चिकित्सा के क्षेत्र को अपवाद मानकर जीव-हत्या करना ठीक है? क्या मानव की जान, किसी और जीव से ऊपर है? और अगर नहीं है तो क्या स्वयं को एलोपैथिक के इलाज से दूर रखना स्वयं पर हिंसा नहीं है? कृपया स्पष्टता प्रदान करें।
आचार्य प्रशांत: टेढ़ी जिज्ञासा कर दी! कुछ ऐसी बातें बोलनी पड़ेंगी जो तर्क से आगे की हैं। श्रद्धालु होगे तो समझोगे, नहीं तो कोई बात नहीं।
देखो, सर्वप्रथम तो तुम्हारी यह मान्यता है कि एक जीव के साथ हिंसा करके, किसी दूसरे जीव का लाभ किया जा सकता है, यह गलत है। अस्तित्व ऐसे काम नहीं करता। प्रकृति में ऐसा होता है, चेतना में ऐसा नहीं होता। प्रकृति में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और छोटी मछली की मौत से बड़ी मछली को पोषण मिल जाता है। पदार्थ के क्षेत्र में ऐसा होता है कि एक परमाणु हो, उसको एक इलेक्ट्रॉन की आवश्यकता हो, अपने कंफिगरेशन को, अपनी कक्षा को पूरा करने के लिए, तो उसमें एक प्यास उठती है, उसका एक फील्ड जगता है, एक क्षेत्र जगता है और वह अपने आसपास से एक इलेक्ट्रॉन सोख लेगा, खींच लेगा। यह पदार्थगत घटना है। उस इलेक्ट्रॉन को सोख लेने की घटना को तुम परमाणु की भूख कह सकते हो। वह भूखा था और उसने इलेक्ट्रॉन को खींच लिया। पदार्थ भूखा था, उसने अपनी भूख मिटाने के लिए एक छोटे पदार्थ को खींच लिया। और छोटा पदार्थ आया, बड़े का हिस्सा बन गया। बड़ी मछली जब छोटी मछली को खाती है, तब भी यही घटना घटती है। यह घटना प्रकृति के क्षेत्र में बिलकुल ठीक है। बल्कि ऐसे कह लो — न ठीक है, न गलत है, क्योंकि प्रकृति पर तो न नैतिकता चलती है, न धर्म चलता…