एक भय परम तक भी ले जाता है
यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
महद् भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।
(कठोपनिषद, अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 2)
ये जो कुछ सारा जगत है प्राण — ब्रह्म में, उदित होकर उसी से, चेष्टा कर रहा है। वो ब्रह्म महान भय रूप और उठे हुए वज्र के समान है। जो इसे जानते हैं वो अमर हो जाते हैं।
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥
(कठोपनिषद, अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 3)
इस(परमेश्वर) के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र, वायु और पांचवा मृत्यु दौड़ता है।
आचार्य प्रशांत: इन दो श्लोकों में पहला कहता है कि परमात्मा दयालु, करुणावान तो है ही, भयमय है, भय स्वरूप भी है। दूसरा कहता है कि भला ही है कि परमात्मा भय स्वरूप है। भय से ही तो अग्नि है, धरती है, इंद्रियां हैं, ध्वनि है, प्रकाश है, समस्त देवतागण है। तो ये बात कदाचित कई जनों को उलझन में डाल रही है कि भय ‘कीमती’ कैसे हो सकता है, भय का पक्ष क्यों लिया जा रहा है।
भय है विचार, कि कुछ हो जाएगा, कुछ छिनेगा कुछ मिट जाएगा। ज़ाहिर सी बात है कि ये विचार इस पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। आप जो होंगे, उसी के अनुसार आपको खोने का विचार आएगा और सताएगा। एक वैज्ञानिक चला जाता हो। उसकी एक जेब में एक छोटी सी चिप पड़ी हो जिसमें उसके शोधकार्यों का ब्यौरा हो और उसकी दूसरी जेब में बहुत…