एक भय परम तक भी ले जाता है!

यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।

महद् भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

(कठोपनिषद, अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 2)

ये जो कुछ सारा जगत है प्राण — ब्रह्म में, उदित होकर उसी से, चेष्टा कर रहा है। वो ब्रह्म महान भय रूप और उठे हुए वज्र के समान है। जो इसे जानते हैं वो अमर हो जाते हैं।

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।

भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥

(कठोपनिषद, अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 3)

इस(परमेश्वर) के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र, वायु और पांचवा मृत्यु दौड़ता है।

आचार्य प्रशांत: इन दो श्लोकों में पहला कहता है कि परमात्मा दयालु, करुणावान तो है ही, भयमय है, भय स्वरूप भी है। दूसरा कहता है कि भला ही है कि परमात्मा भय स्वरूप है। भय से ही तो अग्नि है, धरती है, इंद्रियां हैं, ध्वनि है, प्रकाश है, समस्त देवतागण है। तो ये बात कदाचित कई जनों को उलझन में डाल रही है कि भय ‘कीमती’ कैसे हो सकता है, भय का पक्ष क्यों लिया जा रहा है।

भय है विचार, कि कुछ हो जाएगा, कुछ छिनेगा कुछ मिट जाएगा। ज़ाहिर सी बात है कि ये विचार इस पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। आप जो होंगे, उसी के अनुसार आपको खोने का विचार आएगा और सताएगा। एक वैज्ञानिक चला जाता हो। उसकी एक जेब में एक छोटी सी चिप पड़ी हो जिसमें उसके शोधकार्यों का ब्यौरा हो और उसकी दूसरी जेब में बहुत रुपया-पैसा, बड़ी धनराशि पड़ी हो। वो किस जेब को बार-बार टटोलेगा? वो किस जेब की सुरक्षा चाहेगा? क्या है जिसके खोने का भय उसे सताएगा?

प्र: चिप वाली जेब का

आचार्य जी: और जाता हो कोई साधारण व्यापारी। उसकी एक जेब में दुनिया भर के विज्ञान की बातें पढ़ी हूं — कोई चिप ही — और दूसरी जेब में उसकी कमाई। उसको क्या खोने का भय सताएगा? तो आप देख रहे हैं भय का संबंध किससे है?

भय का संबंध है ‘मूल्य’ से — आप किसको मूल्य देते हो, आप किसको कीमती समझते हो। भय दोनों को है। पर क्या खोने का भय है ये इस पर निर्भर करेगा कि तुम मूल्य किसको दे रहे हो। तुम मूल्य किसको दे रहे हो वो इस पर निर्भर करेगा — और इसी बात को निर्धारित भी करेगा — कि तुम कौन हो।

मीठी कहानी है। मैं कई बार कह चुका हूं। किसी ज़ेन फकीर की है। वो अपनी झोपड़िया में अलमस्त पड़ा है। जो उसकी छत है, छप्पर, वो टूटा-फूटा है। कह लो कि आधा गायब ही है — फकीरों की बात है। तो एक चोर घुस आता है। बेवकूफ होगा, जैसे चोर होते हैं, फकीरों के यहां चोरी करने गया । तो उसके यहां जो पाता है — टाटी-लोटा, बर्तन-भाड़ा और क्या पाएगा? 2–4 कपड़े, 2–4 रूपए वो इकट्ठा करके भागने लगता है। वो सोच रहा है कि फकीर सोया पड़ा है। फकीर जगा हुआ है। वो देख रहा है तमाशा पड़े-पड़े। जब चोर विदा होने लगता है, तो कहता है, “काश, मैं इसे वो चांद भी दे पाता।” टूटे हुए छप्पर से वो आसमान में चांद को निहार रहा है, और ऐसा तार बैठ गया है चांद में और फकीर की आंख में कि उसे उस तार को तोड़ना नहीं है। वो कह रहा है कि दृष्टि उसी पर लगातार जमी रहे। इतना भी व्यवधान कौन डाले कि उसको छोड़ कर चोर को देखें और टोके, या खख़ार ही दे कि चोर भागे — उसे ये सब नहीं करना है। मूल्य की बात है। फकीर के लिए चांद का मूल्य चांदी से ज्यादा है। ये क्यों है? क्योंकि वो फकीर है। और आप बात को पलट कर भी क्या सकते हैं, आप गलत नहीं होंगे। आप ये भी कह सकते हैं कि चूंकि उसके लिए चांद का मूल्य चांदी से ज्यादा है इसलिए वो फकीर है। दोनों बातें एक साथ है। कोई दूसरी बात का कारण नहीं है।

जो तुम्हें कीमती होगा तुम्हें उसी का छिनना बुरा लगेगा। इस बुरा लगने को ही कहते हैं भय।

तो भय थोड़े ही बुरी बात है। बुरी बात ये है कि तुम्हें जो निकृष्ट है, निम्न है, उसका छिनना बुरा लग रहा है। तुम्हें भय है कि कहीं तुम्हारे कष्ट और मलिनताए और बेवकूफियां ना छिन जाए — तब भय बुरा है। तुम्हें राम के छिनने का भय है, तो भय अच्छा है। उसमें भी आगे हम बात करेंगे कि राम के छिनने का भय क्या होता है पर पहले भय और भय में अंतर समझना ज़रूरी है। फरीद भी कांप उठते हैं। बुल्लेशाह भी कहते हैं कि “रात को नींद नहीं आ रही है, प्यारा कहीं दिखाई नहीं देता, और नदी उफनाई हुई है, क्या करूं?” भय वहां भी है, व्याकुलता वहां भी है।

कहा जाता है कि तीन जन होते हैं जो रात में नहीं सोते, पर अंतर देखना। कौन होते हैं वो तीन जो रात में नहीं सोते? सबसे नीचे होता है कामी। वो क्यों नहीं सोता समझते ही हो। शरीर नोचे पड़ा है उसको, कहां से नींद आएगी? शरीर ऐसा हावी है। उसके ऊपर होता है चौकीदार। उसका मन उसे नीचे पड़ा है। कर्तव्य भावना प्रगाढ़ है, चढ़ी हुई है। फेरी दे रहा है, इसलिए नहीं कि उसे प्रेम है उन लोगों से जिनकी रक्षा करता है, बल्कि इसलिए कि कुछ पैसा मिलेगा। और सबसे ऊपर होता है संत। वो भी रात भर नहीं सोता अनिद्रा-अनिद्रा में, व्रत-व्रत में, रतजगे-रतजगे में, जागरण-जागरण में भेद है। भेद करना सीखो। भय-भय में भेद है। फरीद भी कहते हैं कि मुझे रात भर नींद नहीं आती, और आवारा-मनचले नशेड़ी भी घूमते रहते है। उन्हें भी रात भर नींद नहीं आती। फर्क है। दोनों को एक कोटि में मत रख देना। तुम राममय हो जाओ, इसकी अनिवार्यता ही यही है, उस दशा से पहले की शर्त ही यही है कि तुम्हें राम इतने प्यारे हो जाए कि राम का खोना बर्दाश्त ना कर पाओ।

ज़रा स्थूल उदाहरण है पर दिए देता हूं। हम एक वैज्ञानिक की बात कर रहे थे। उसकी जेब में जब तक है चिप, तब तक उसका खोना संभावित है। संभावना हो सकता है नगण्य हो, पर शून्य नहीं है। जेब में ही तो है, खो सकती है। तो वो एक विधि निकालता है। वो कहता है कि इस चिप को क्यों ना अपने हृदय में स्थापित कर लूं। अब नहीं खोएगी। एक बार कर लिया हृदय में स्थापित, अब भय जाता रहता है। पर हृदय में स्थापित तभी करेगा जब भय की पराकाष्ठा हो जाए। ये भय प्रेम है। तुम्हें इतना प्यार है कि तुम प्रेमी को खोना बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो तुम उसे फिर उठा कर हृदय में ही स्थापित कर लेते हो। गलत नहीं होगा अगर आप कहें कि संत को राम के खोने का भय इतना सताता है कि वो फिर राम में ही विलीन हो जाता है। वो कहता है कि यही अकेली विधि है जिससे अब मैं राम को कभी खो नहीं पाऊंगा। जब तक चुप हाथ में है, जेब में है, खो सकती है। आंखों के सामने है, तो भी सिद्धांत ये संभव है कि खो जाए — गड़बड़ हो सकती है।

कबीर कहते हैं कि सिर्फ मछली प्रेम जानती है। क्यों? क्योंकि पानी से निकलती नहीं है, कि दम तोड़ देती है। इतना प्यार है कि प्यारे से बिछड़ेंगे नहीं, कि जान चली जाएगी। जिसको इतना प्यार हो कि एक पल की दूरी बर्दाश्त ना कर पाए, जान चली जाए मछली की तरह, तो उसके पास अब रास्ता ही क्या बचा? उसे यही करना पड़ेगा कि जिससे प्यार है या तो उसमें समा जाए या उसको अपने भीतर समेट लें। ये दोनों एक ही बात है। जब आप कहते हो कि मैं राम का हो गया, मैं कृष्ण का हो गया, मैं सत्य का हो गया, मैं परमात्मा का हो गया, और आप जब कहते हो कि मैंने राम को हृदयस्थ कर लिया, तो आप एक ही बात कर रहे हो। दोनों अलग बातें नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आप यही कह रहे हो कि अब बटवारा नहीं होगा — ना विघटन, ना विभाजन। अब दूरी नहीं बनेगी। हम और वो एक हो गए — फना, विलीन। जो चीज कीमती नहीं उसे तो कहीं भी रख कर छोड़ दोगे और कहोगे, “खो जाए, तो खो जाए।”

मां भी बच्चे को प्रेम करती है, तो इतना ही कर पाती है कि सीने से लगाए घूम रही है। भक्त का प्रेम मां की ममता से कहीं ऊंचे आयाम का है। वो छाती से नहीं लगाता, वो छाती में बिठा लेता है। पर पहले तुम्हें कीमत पता हो, तब तुम्हें डर लगेगा। तुम डरते नहीं हो क्योंकि तुम्हें कीमत ही नहीं पता। जिस चीज की कीमत नहीं पता उसको लेकर क्यों डर होगा? फिर तो तुम कहोगे, “खोती हो, तो खो जाए।” जैसे कि तुमने हीरे को कंकड़ समझ लिया हो और उसे उछाले फिरते हो। अब तुमने उछाला, और वो पलट के हाथ में आ गया, तो अच्छी बात; नहीं हाथ में आया, इधर-उधर गिर गया, खो गया, तो भी क्या फर्क पड़ता है। हीरे को हीरा जानो, तब ना डर लगे। यूं उछाल दिया और ना मिला, तो? और जब तक राम तुम्हारे हृदय में ही नहीं स्थापित हो गए हैं, तब तक भला है कि तुम डरो। ना डरना सिर्फ उन्हें शोभा देता है जिन्हें अब खोने की संभावना शून्य हो गई है, नहीं तो तुम्हारी बड़ी अजीब हालत हो जाएगी। कबीर कहते हैं:

हीरा पायो गांठ गठियायो

वो हृदय की ग्रंथि है, वो भीतर है। हीरा उन्होंने भीतर स्थापित कर लिया है। कबीर को अब नहीं डरना है, आपको तो डरना चाहिए। क्यों डरना चाहिए? क्योंकि हीरा आपसे अभी बाहर है, आपसे अभी दूर है। आप डरिए। आपसे खो सकता है, इसलिए नहीं कि खोना हीरे की फितरत है बल्कि इसलिए कि खोना आपकी फितरत है। हीरा अपनी जगह रह भी आए, आप उसे भूल जाए, तो आपके लिए तो खो ही गया ना? हीरे की फितरत नहीं है खोना, पर आप तो आजन्म खोए हुए ही हैं। तो आप तो डरिए कि कहीं खो ना जाए। मैं जब भी भय की बात करता हूं, लोग आते हैं, कहते हैं, “नहीं साहब, ये बात ठीक नहीं है।

कुछ ज्ञानियों ने समझाया है कि डर के कोई काम नहीं होना चाहिए।” मैं कहता हूं, वो बात उनसे कही गई है जो डर के पार चले गए। तुम्हारी तो सांस-सांस डर में है। तुम डर के अलावा जानते क्या हो? तो जब तुम मुझसे कह रहे हो कि डर नहीं होना चाहिए, तो तुम कह रहे हो कि तुम अपने सास-ससुर से डरना चाहते हो, तुम अपने अधिकारियों से डरना चाहते हो, तुम पुलिस से डरना चाहते हो, तुम अपनी बीवी से डरना चाहते हो, तुम बैंक से डरना चाहते हो, तुम दुनिया की तमाम आपदाओं से करना चाहते हो, तुम सड़क के सांड से डरना चाहते हो, बस तुम सत्य से नहीं डरना चाहते।

एक सज्जन आए, बोले, “कृष्णमूर्ति ने कहा कि सबसे बड़ी बाधा डर है।” मैंने कहा, उन्होंने तुमसे तो नहीं कहा है ना, या तुमसे कहा है? और अगर सबसे बड़ी बाधा डर है, तो तुम सबसे पहले सड़क के सांड से डरना छोड़ो और अपनी बीवी से डरना छोड़ो। नहीं, उनसे तुम डरते रहोगे। तुम्हें किसी से नहीं डरना है? तुम्हें राम से नहीं डरना है, तुम्हें सच्चाई से नहीं डरना है। डरने का अर्थ समझते हो ना: मूल्य देना। जब तुम सांड से डरते हो, तो तुम अपनी शारीरिक सुरक्षा को मूल्य दे रहे हो। जब तुम अपने पति, पत्नी, सास, ससुर, रिश्तेदार, बन्धु-बांधव, किसी से भी डरते हो, तो तुम परिवार को मूल्य दे रहे हो। पर तुम सत्य से नहीं डरते क्योंकि तुम सत्य को मूल्य नहीं दे रहे हो। भयहीनता आखरी स्थिति है। वो उन्हीं को आए, जो आखिर तक पहुंच गए हैं। जो आखिरी तक नहीं पहुंचे उनके लिए बहुत आवश्यक है कि वो डरे, थरथर कांपे। ये भूल मत कर बैठना कि तुम सच से डरना छोड़ दो।

भय बिन होय न प्रीति

और कहते हैं कबीर:

भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय। भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय॥

भक्त और भगवान एक हो गए, तब भय गया। पर जब तक भक्त और भगवान में दूरी है, तब तक तो भक्ति करो, उस भक्ति में भय शामिल है। संत कवियों को पढ़ो। बार-बार क्या कहते हैं: प्रभु मेरे अवगुण माफ कर देना। इसमें भय नहीं दिख रहा क्या? भय है, कि क्या पता अवगुण ना माफ हो।

प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो

आप डरिए। डरने में नहीं बुराई है। गलत वस्तु से, गलत व्यक्ति से, और गलत केंद्र से डरने में बुराई है। तुम्हें जिससे नहीं डरना चाहिए तुम उससे डरते हो क्योंकि तुम उसका मूल्य करते हो, क्योंकि तुम उसे छिनने नहीं देना चाहते। जिससे तुम्हें डरना चाहिए उसकी तुम्हारी नजरों में कोई हैसियत नहीं। वहां तुम बेखौफ होकर घूमते हो। तुम्हारा बेखौफ होकर घूमना ऐसा ही है जैसे कि कोई छोटा, अनाड़ी बच्चा शेरो के झुंड में बेखौफ होकर घूमे। थोड़ी देर घूमेगा, फिर मौत है। पर थोड़ी देर के लिए तुम बादशाह बन ही लेते हो। कोई बेहोश बच्चा सांप को उठाए हुए घूम रहा है। उठाए हुए ही नहीं घूम रहा, उस के फन में उंगली दे रहा है। बड़ा बेख़ौफ़ लगेगा। कितनी देर तक?

जम के दूत बड़े मजबूत, जम से पड़ा झमेला।

तुम परमात्मा की करुणा पर आश्रित नहीं हो, तुम परमात्मा को चुनौती दे रहे हो। ये भी नहीं है कि तुम सांप उठाकर प्रार्थना कर रहे हो कि प्रभु नाग में भी नारायण दिख रहे हैं इसलिए उठाया है। तुम तो परमात्मा को चुनौती दे रहे हो, “तेरी हैसियत क्या है? होगा तेरा संसार, तूने कहा होगा कि ये मृत्यु लोक है, हमें नहीं लगता मृत्यु लोक है। हम नहीं डरते मृत्यु से।” थोड़ी देर में साबित हो जाएगा कौन-सा लोक है।

तुम डरो; तुम्हें पसीने छूटे। जहां तुम्हें संभावना दिखाई दें कि छिटक रहे हो, तुम्हें जो झुरझुरी छूट जानी चाहिए, हालत पस्त हो जानी चाहिए। यही बात उपनिषद में कही गई है। जो परमात्मा से डरता है, वो औरो से नहीं डरेगा। दुनिया से नहीं डरना है। जब कृष्णमूर्ति कह रहे हैं मत डरो, तो वो कह रहे हैं दुनिया से मत डरो, पर है कुछ दुनिया के पार, उससे डरो। उसको खो दिया, तो जीवन खो दिया; उसको खो दिया, तो चलती फिरती मौत है। डरो! शरीर की मृत्यु उतनी दुखद नहीं है जितना दुखद है सांस लेते हुए मुर्दा हो जाना। डरो उस संभावना से, कि तुम्हारी आंखें तो खुली हुई हैं और तुम्हारी आंखें वैसी है जैसे लाश की आंखें होती हैं। देखा है ना कितनी भयावो लगती है मुर्दे की खुली हुई आंखें? उसकी पलकें बंद कर दी जाती है। बहुत लोग हैं, जिनकी आंखों में झांको, तो तुम्हें प्राण, प्रकाश, जीवन ना दिखाई देगा। प्रस्तर, पाषाण, मृत्यु — ना वहां पानी है, ना भाव है, ना बोध है, बस समय की धूल है, जैसे आंखों में जाला पड़ गया हो। उस संभावना से डरो। वो संभावना कल्पनिक नहीं है, अधिकांश मानवता की किस्मत है वो संभावना। अधिकांश मानवता उसी में जी रही है। डरना तुम्हें चाहिए। जब तुम्हें दिख रहा है कि 100 में से 99 लोग उसी हश्र को प्राप्त हो रहे हैं, तो तुम डर कैसे नहीं रहे हो? तुम अपने आप को क्या समझते हो? तुम ही अजूबे हो? तुम्हें फन्ने खां हो? तुम ही माया को काट जाओगे? पर तुम्हें बड़ा यकीन है कि तुम अपवाद हो। मज़ेदार बात ये है कि वो जितने मुर्दे घूम रहे हैं उन्हें भी यकीन है कि वो अपवाद हैं। डरो! उस एक से डर लोगे, उसके बाद ज़माने से डरने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

डर का अर्थ हम स्पष्ट कर चुके हैं। मैं दोहरा रहा हूं:

डर का अर्थ है प्रेम है इतना कि छिनना बर्दाश्त नहीं कर सकते।

ये परिभाषा है डर की: छिनना बर्दाश्त नहीं कर सकते। मछली को मत भूलना — ऐसा प्रेम है। छटपटाती मछली देखी है? मछली को पानी से निकालो, तो उसका छटपटाना देखा है? ऐसा अनुराग होना चाहिए राम के प्रति। दो पल को वो बिछड़ा नहीं, कि तुम्हारी पूरी व्यवस्था छटपटाने लग जाए। तुम किस श्रेणी में अवस्थित हो ये जानना हो, तो यही देख लेना कि जब सत्य के साथ नहीं होते, जब राम के साथ नहीं होते, तो तुममें छटपटाहट कितनी उठती है? तुम्हारी छटपटाहट ही तुम्हारी प्रीति है, तुम्हारी छटपटाहट ही भय है। जब संत जन कहते हैं, “भय बिन होय न प्रीति,” तो उसको यही जानना कि वो कह रहे हैं भय = प्रीति। छटपटाहट ही प्रीति है, छटपटाहट ही भय है, प्रीति ही भय है।

अपनी छटपटाहट को आंकना। तुम में है आकुलता? तुम्हें लगता है ऐसा जैसे सांस अटक गई? जैसे किसी ने गला बांध दिया हो, तुम्हें लगता है ऐसा? ना। तुम तो जब सत्य से दूर भी होते हो, तो मौज में होते हो। बड़ी झूठी मौज है, पर तुम्हारे लिए तो है।

सच्चा प्रेमी वो जिसकी आंखें हर वक्त तलाशती रहे प्रिय जन को।

यही अंतर है: झूठा प्रेमी जब दूरी पाता है, तो दूरी बढ़ाता है। कहता है, “मौका मिल गया। अब अपनी कारस्तानी को अंजाम देते हैं। पहले तो उसने पकड़ रखा था। अवसर ही नहीं मिलता था। अब अवसर मिला है, दूरी है। अब कुछ कारगुजारियां करते हैं जो हमें और दूर ले जाए।” जो सच्चा होता है वो जब दूरी पाता है, तो छटपटा जाता है और दूरी को घटाने के लिए उद्धत होता है। तुम्हारी क्या हालत होती है, उन क्षणों में जब दूरी बन जाती है, इसी से सब तय हो जाता है। विरह, वियोग, वेदना कितना सताते हैं तुमको? मीरा को जब भी लगा है कि कृष्ण से दूरी है, वो आंसू-आंसू हो गई है; वो हँस नहीं पाई है। और जब मीरा के पास है कृष्ण, उस समय मीरा को कोई रुला नहीं सकता, कोई दुख नहीं।

ज़माना छीन रहा हो तुम से, तो बेपरवाह रह जाना — कुछ नहीं छीन रहा। सच्चाई छिनती हो, हृदय छिनता हो, प्रेमी छिनता हो, राम छिनते हो, गुरु छिनता हो, तो बदहवास होकर चीखना-चिल्लाना, पांव पटकना, यत्न करना — ये अनहोनी घटने मत देना।

दुनिया छिन गई, कुछ नहीं छिन गया, कुछ नहीं — क्या करोगे? पर कोई है जो अगर छिना, तो तुम कहीं के नहीं रहोगे। उसके छिनने पर अनियंत्रित हो जाना, अव्यवस्थित हो जाना, अपने आपको सारी नीति से और बन्दिशों से और वर्जनाओं से मुक्त कर देना। जल से विलुप्त मछली कोई लाज रखती है फिर? किसी मर्यादा का पालन करती है? वो तो कूदती है, फांदती है, तड़पती है उछलती है। जो उसके बस में है, सब कुछ करती है। उसे सागर चाहिए। तुम भी किसी मर्यादा में मत बन्ध जाना। राम छिनते हो, तो मूक मत रह जाना। ये ना कह देना कि “अरे, समाज के सामने नंगे कैसे हो जाएं? कैसे चीखें? कैसे चिल्लाएं?” चीखना-चिल्लाना, उपद्रव करना, सर पटकना, जो कीमत दे सको, देना, पागल हो जाना। सत्य छिना जाता हो, और तुम शांत धरे बैठे हो, मौन तमाशा देखते हो, इससे बड़ा अभाग्य नहीं हो सकता। महाअनर्थ के सामने तुम शांत कैसे बैठे हो? और तुम कह रहे हो, “देखिए शांति बड़ी बात है। किसी भी मौके पर शांति नहीं होनी चाहिए।” अरे, शांति ही तो खोई जा रही है। राम और शांति एक ही है। राम को खोए दे रहे हो, तो कौन-सी ये झूठी शांति पकड़े बैठे हो?

अपनी हकीकत प्रदर्शित करो। दिखाओ कि शांति गई। राम गए, तो शांति गए, और शांति गई, तो हम क्या हैं?

अशांत हैं।

उस अशांति को प्रदर्शित करो, होने दो, खुलने दो। तुम्हें भी तो तुम्हारी हकीकत पता चले कि तुमने क्या खो दिया है। बावले हो जाओ, किसी की ना मानो।

*परमात्मा* तुम्हारी इसी बेसब्री का बेसब्री से इंतजार करता है। वो तुम्हें बदहवास देखना चाहता है। उसे तुम्हारे पागलपन की ही प्रतीक्षा है। तुम जब तक संयमित हो और धीरजधारी हो, परमात्मा कहता हैं, “ठीक है, मुझसे दूर रहकर भी इसे संयम है, तो अभी इसे मेरी जरूरत नहीं। अभी इसे जो कुछ मिला हुआ है, इसके लिए वही काफी है।”

तुम्हारे लिए खेल-खिलौने, तमाशा, कुर्सी-मेज, और बर्तन ही काफी हैं, तो तुम्हें परमात्मा की जरूरत क्या है? क्यों आए वो तुम्हारे पास? व्यर्थ, कि जैसे तुम गए हो ₹10 का आलू खरीदने और कोई तुम्हें हीरे जवाहरात दे दे। तुम्हारे लिए व्यर्थ है, क्या करोगे? तुम्हें चाहिए ही नहीं था।

तुम शोर मचाओ। जब परमात्मा के लिए शोर मचाते हो, तो वो शोर भजन कहलाता है। मीरा गा रही है, रहदास गा रहे है, दादु गा रहे हैं, फरीद गा रहे हैं, कबीर गा रहे हैं, ये और क्या है? विरह में जब एक जोगी गाता है और रूठे यार को मनाता है, बुलाता है, तो वैसा ही है जैसे कोई बच्चा मां के लिए शोर मचाता है। चूंकि तुम अस्तित्व के मालिक को बुला रहे हो, इसीलिए अब ये शोर अस्तित्व के साथ हिल-मिल जाता है, संगीत बन जाता है। शोर में और संगीत में यही अंतर है। जो शब्द तुमने किसी और की आशा में, प्रतीक्षा में कहा, वो शोर है भले उसके पीछे संगीत का कितना कौशल, कितना अभ्यास हो, फिर भी वो शोर है। कितने मंझे-मंझे संगीतकार हैं, वो गाते हैं। अपनी दृष्टि में वो बड़े संगीतज्ञ हैं पर उनमें मीरा की बात है क्या? ये जितने गायक-गायिकाएं हैं, एक से एक सधे हुए, मंझे हुए, ये कोई मीरा का मुकाबला करेंगे? और मीरा नहीं करतीं थीं अभ्यास, पर मीरा का शब्द कृष्ण के लिए था। इनका शब्द किसके लिए है? ये बुला रहे हैं पड़ोस के मोहल्ले की किसी स्त्री-पुरुष को। इनकी गायकी सिर्फ मूर्खों के कानों को संगीत लगेगी। जो इन गायकों के संगीत को सुने, उससे बड़ा अभागा दूसरा नहीं है। मैं नहीं समझता कि कबीर शास्त्रीय संगीत जानते होंगे या कोई भी संगीत जानते होंगे। पर एक प्राकृतिक बहाव है, जैसे अस्तित्व आकर उनके कानों में लय फूंक गया हो। कौन जाने कैसा था कबीर का गला। फर्क क्या पड़ता है कबीर का गला कैसा था? हमें कबीर का हृदय दिख रहा है। गले से नीचे जाना सीखो, वहां दिल मिलेगा। जहां दिल है, वहां संगीत है। संगीत गले की बात नहीं है कि रियाज़ करे जा रहे हैं, तो संगीतज्ञ कहला गए। ये दो कौड़ी के संगीतज्ञ हैं रियाज़ वाले।

अंततः एक दिन आता है, जब कबीर कहते हैं कि खोने वगैरह है की अब बात खत्म हुई। अब तो मिलन ऐसा है कि जुदाई संभव नहीं। दो हो, तो एक दूसरे से बिछड़े।

एक रहा दूजा गया दरिया लहर समाय

नदी जब तक थी, तो उसे लगता था कि सागर मिले ना मिले। लहर जब तक थी, तो उसे लगता था कि नदी मिले ना मिले। अब वो दूई कहीं नजर आती नहीं, क्या खो देंगे? पर वो बिल्कुल आखिरी बात है। तुम मत कह देना! तुम्हारा जीवन तो दूई ही दूई से भरा हुआ है, द्वैत पर ही चल रहा है। तुम तो डरो। ना डरना कबीर को शोभा देता है, तुम्हें नहीं।

3 कोटी के फिर मन हुए। उच्चतम तो कबीर का हो गया जिसके पास वो डर नहीं है क्योंकि अब वो ब्रह्म ही है। खो सकता नहीं, तो डर की आवश्यकता नहीं। उसके नीचे आता है साधक का मन जो बहुत डरा हुआ है क्योंकि उसको दिख रहा है कि खो देगा। साधना यदि पूरी ना रही, भक्ति में, समर्पण में यदि खोट रह गई, तो खो देगा। और इन सबसे नीचे आता है संसारी जो खोए हुए हैं फिर भी डरता नहीं। अब उसमें और कबीर में एक बात सही है, क्या? दोनों डरते नहीं। पर ना डरने वाले लोग या तो उच्चतम कोटि के होंगे या निम्नतम कोटि के। उच्चतम कोटि के होंगे इसकी संभावना कितनी है? इसकी संभावना ठीक उतनी है जितनी जनसंख्या में कबीर होते हैं। कितने होते हैं? लाखों में एक। तो इसकी संभावना 1/100000 है कि तुम डर नहीं रहे हो और उचित ही है कि नहीं डर रहे हो। तुम डर नहीं रहे हो, तो करीब-करीब शत प्रतिशत संभावना यही है कि तुम महामूढ़ हो। तुम गवाए भी बैठे हो और तुम्हें पता भी नहीं है तुमने गवा दिया। तो तुम तो जब डरना शुरू करते हो, तो तुम तीसरी कोटि से उठ कर दूसरी में आते हो — ये विकास है तुम्हारा, ये ऊर्ध्वगमन है तुम्हारा। संत के पास जाओगे, तो जो नहीं डरता, संत उसे भी डरा देगा। ये तो अजीब बात है। संतों का काम तो हमने सुना था ये था कि वो डर हटाए, निर्भय करें, पर ये कैसे गुरुदेव है? ये तो डरा रहे हैं। वो डरा रहे हैं, तुम्हें उठा रहे हैं। निडर तो तुम घूम ही रहे हो पर तुम्हारी निडरता कौन-सी है? उस बच्चे वाली जो सांप हाथ में लेकर घूम रहा है। चार पल की निडरता है।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।

खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।

हाथ में सांप है और सुख मना रहे हैं। मौत की गोद में हो और मान रहे हो कि “वाह, क्या आनंद आ रहा है।” गुरु के पास जाओगे, वो तुम्हारी झूठी निडरता हटाएगा, वो तुममें परमात्मा का भय भरेगा। परमात्मा के भय का मतलब समझते हो? परमात्मा को खो देने का भय। गॉड-फीयरिंग शब्द का वास्तव में अर्थ यही है। परमात्मा नहीं डराने आता, पर तुम्हें जाना चाहिए कि परमात्मा को कहीं खो ना दूं। ये है वास्तविक अर्थ गॉड-फीयरिंग का।

भगवान से मत डरो, भगवान को खोने से डरो।

जब भगवान को खोने से डर रहे हो, तो वास्तव में तुम किससे डर रहे हो?

शैतान से।

गॉड-फीयरिंग का अर्थ वास्तव में है सैटन-फीयरिंग।

सत्य से नहीं डरना है, सत्य को खोने से डरना है, माने किस डरना है? असत्य से डरना है। पर हमारे दिमाग कुछ ऐसे विकृत है कि हमने उस शब्द को बर्बाद कर दिया है — गॉड-फीयरिंग। हम भगवान से ही डरने लग गए हैं। अब जब डरोगे, तो दूरी और बढ़ा लोगे, और क्या करोगे? जो डराता है, उसके करीब जाते हो कभी? जिससे डर लगता है, उससे क्या करते हो? और भाग जाते हो। इस भागने से डरना है — सत्य से नहीं डरना है।

भय परम आवश्यक है। परम तक जाना है, तो भय आवश्यक है। मेरा काम है आपमें भय का संचार करना। फिर एक अवस्था आती है जब आप दूसरी कोटि से पहली में प्रवेश कर जाते हो। अब ना रहा द्वैत और ना रहा बिछड़ने का भय। पर ये बड़ी दूर की बात है, कौन कल्पना करें उसकी? हम तो तथ्यों में जिए ना। हमें तो अपनी जिंदगी काक, अपनी औकात का पता है। कहां पहली कोटी? हम तो थर्ड क्लास वाले हैं। हमें तो डर लगता ही नहीं। ये किस बात की निशानी है? तीसरी कोटि की। आज सत्र है, इसके लिए इनको एक अलग से उद्घोषणा करनी पड़ती है, “भाइयों, कल सब नदारद थे, आज आ जाना।” कौन कांपा विरह में? किसने कहा कि बड़ा नुकसान हो गया? हम तो किस कोटि के हैं? तीसरी। अच्छा हो कि डरे और दूसरी कोटि में प्रवेश करें। दूसरी से पहली की यात्रा पता नहीं कैसे होती है, कब होती है। वो ऊपर से बूंद टपकती है, वो प्रसाद है। हमें नहीं मालूम दूसरे से आप पहले में कब जाएंगे। आपका धर्म है दूसरे में बने रहना, आपका धर्म है डरे रहना। जो डरा रहता है, परमात्मा उसे निडर बनाएगा। जो नहीं डर रहा, जीवन उसे खूब-खूब डराएगा।

और ये जो तीसरी कोटी वाला आदमी है, ये ऐसा नहीं है कि कहीं नहीं डरता — हम बात कर चुके हैं। ये किस से डरता है? सड़क के सांड से डरता है, संसार से डरता है, बस ये परमात्मा से नहीं डरता। इसको बोल दो मंदिर जाना है, ये तन के खड़ा हो जाएगा, “नहीं, पहले समझाओ क्यों जाना है।” इसको बोल दो, “नई पिक्चर लगी है, चलो।” ये चल देगा। ये वहां नहीं पूछेगा कि क्यों जाना है। ये वहां चल देगा। अदालत की पेशी आ जाए, ये घुटनों के बल रेंग कर जाएगा, पहुंच जाएगा। वहां इसकी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि हम तो निडर हैं। हम नहीं सुनेंगे किसी की, हम नहीं आएंगे। वहां ऊपर न्यायमूर्ति बैठे हैं, उनको तुरंत बोलेगा, “योर ऑनर!” पर किसी ज्ञानी के सामने जाएगा तो कहेगा, “हम क्यों कहे इनको गुरुजी? नहीं, नहीं, ये गुरुजी वगेरह नहीं चलेगा।” ये बात तुम को न्यायालय में नहीं याद आई थी? तब तुमने नाम लेकर पुकारा था जज को? वहां डर है कि अभी अदालत आज्ञा देगी, पुलिस आएगी, और ऐसी सुताई करेगी मेरी अदालत की अवहेलना करने पर, कि कहीं का नहीं बचूंगा। तो डरता तो वो है पर स्थूल सुताई से। डंडे पड़े, और प्रकट डंडे पड़े, तो वो डरेगा। दिल का कुछ छिन गया, भीतर के जीने तार टूट गए, इसका उसे दर्द ही नहीं प्रतीत होता, जैसे कि कोई हाथ-पांव टूटने से डरे और दिल टूटने से ना डरे। कैसा होगा ऐसा आदमी?

प्र: आचार्य जी, क्या बच्चे का ज़िद करना, छटपटाना भी तभी होता है जब उससे सत्य छिनने लगता है?

आचार्य जी: ये बच्चे पर निर्भर करता है। छटपटाना हमारा हमारे मूल्यों पर निर्भर करता है। भांति-भांति के बच्चे होते हैं। जब मैं बच्चा कह रहा हूं, तो बच्चे से मेरा आशय वो है जो मानसिक रूप से अभी बच्चा है, जिसने मानसिक रूप से शैशव को प्राप्त कर लिया है। तो छटपटाहट तो बहुधा देखने को मिलती है। पर क्यों छटपटा रहे हो, ये पकड़ना जरूरी है। अगर हम साधारण बच्चों की बात कर रहे हैं, उम्र के बच्चों की बात कर रहे हैं, 2–4 साल वालों की बात कर रहे हैं, तो वो सत्य इत्यादि को लेकर नहीं छटपटाते। बच्चों को लेकर हमने बड़ी रूमानी छवियां बनाई हुई है। पर बच्चे गर्भ से ही पूर्णतया संस्कारित पैदा होते हैं। समाज बस जैविक संस्कारों के ऊपर एक परत और डाल देता है, कई परतें और डाल देता है। पर अहम् की ग्रंथि तो जीव लेकर ही पैदा होता है — पैदा ही अहम् ग्रंथि होती हैं। तो बच्चा सत्य इत्यादि के लिए नहीं छटपटाता। बच्चा खिलौने के लिए छटपटाएगा, भूख-प्यास इत्यादि के लिए छटपटाएगा। उसे भी सुख चाहिए, उसे भी द्वेष उठता है। बच्चे ईर्ष्यालु, हिंसक भी होते हैं। अपने मंतव्य की प्राप्ति के लिए वो नुकसान करने में, झूठ इत्यादि बोलने में बहुत कतराते नहीं है। बच्चों ने अभी नीति का पाठ नहीं पढ़ा होता है, तो उनको तो नैतिकता भी नहीं रोक पाती। उन्हें जो चाहिए, उसके लिए वो कुछ भी कर गुजरेंगे।

प्र: आचार्य जी, सच के साथ होने का क्या अर्थ है?

आचार्य जी:

सच के साथ होने का अर्थ होता है कि दिख जाए कि झूठ के साथ हो।

बस यही है सच के साथ होना। जितना दिखाई दे की उलझी हुई हूं, फंसी हुई हूं, इतना स्पष्ट है कि सच के साथ हूं। क्या कह ही थी मीरा अभी स्टूडियो कबीर में?

झूठे धंधों से फंद छुड़ाओ

यही है सच के साथ होना। मीरा को दिख गया है कि झूठे धंधों में फंसने की संभावना है और बड़ी विकट संभावना है। दुनिया फंसी हुई है। मीरा को दिखता है: दुनिया फंसी है, मैं भी फंस सकती हूं। तो सीधे कह रही हैं: झूठे धंधों से फंद छुड़ाओ। यही है सच के साथ होना।

सच के साथ हो ना कुछ नहीं है क्योंकि सत्य भी कुछ नहीं है। कुछ कह रहा हूं नहीं है, ये नहीं कह रहा हूं कि सत्य नहीं है। इसको लेकर भी लोगों के प्रश्न आए हैं कि आप बार-बार सत्य का नकार क्यों करते हैं। मैंने कहा, “गजब हो गया। सत्य का नकार चल रहा है, मेरे यहां?” मैं कहता हूं सत्य कुछ नहीं है। मैं ये तो नहीं कहता कि सत्य नहीं है। दोनों बातों में अंतर नहीं समझ आता? हमें प्रतीति जब भी होगी, तो किसकी होगी? कुछ की होगी। और सत्य कुछ नहीं है, इसीलिए सत्य की कोई प्रतीति, अनुभव नहीं होता।

तो सच के साथ होने का मतलब यही है कि झूठ के साथ होने में चिढ़ लगती है चाहे झूठ अपना हो चाहे आंखों से संसार का दिखता हो। झूठ अब खीजता है, नकलीपन अब रास नहीं आता। आप झूठ के साथ है और साथ ही साथ सच बहुत प्यारा है? जय माता दी — ये बात बनी नहीं। सच के आने का अनिवार्य लक्षण ही यही है कि झूठ से चिढ़ होने लगेगी, बड़ी परेशानी और उलझन-सी उठेगी, सांस लेना मुश्किल होगा। कहां फसे हुए है, क्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि नहाते भी जा रहे हैं और कीचड़ में लोटते भी जा रहे हैं — दोनों इकट्ठे तो होते नहीं। नाले में शॉवर लगाया है। गले बराबर कीचड़ है, उसमें खड़े होकर शॉवर लेते हैं। ज़्यादातर साधकों की बिल्कुल यही स्थिति है। उनके शॉवर कहां लगे हुए हैं? ठीक नाले के ऊपर। नाले से बाहर नहीं आयेगे। शॉवर को नाले में ले आए हैं कि तू यही नहला। जिसे सफाई से प्रेम हो जाएगा, जिसे सच के साथ होना है, वो नहाए ना नहाए, पहला काम तो ये करेगा कि कीचड़ से बाहर आएगा। जब नहाना होता है, तो पहले पानी अपने ऊपर डालते हो या पहले कीचड़ से बाहर आते हो?

प्र: कीचड़ से बाहर आते हैं।

आचार्य जी: ये है सच के साथ होना।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org