एक ठसक, एक आग होनी चाहिए

प्रश्नकर्ता (प्र): मैं अपने जीवन को देखता हूँ तो मैं दुनिया की चीज़ों से ही घिरा हुआ पाता हूँ अपने-आपको। अगर मैं अपने मन को कभी काम से हटाता हूँ तो उसमें सिर्फ़ दुनिया ही घूम रही होती है; दुःख तो मिलता है उससे, तो व्यवहारिक तौर से इससे फिर निकला कैसे जाए?

आचार्य प्रशांत (आचार्य): ऊँचा माँगो न, ऊँचा।

देखो छोटे-मोटे सुख तो दुनिया में मिलते ही हैं, तभी तो दुनियादारी कायम रहती है। दुनिया से अगर तुम छोटी चीज़ माँगोगे तो दुनिया उसकी आपूर्ति कर देगी। दुनिया कोई बुरी जगह थोड़े ही है; कितने तरीके के सुख हैं दुनिया में, मिलते नहीं देखा लोगों को सुख? वो तो मिलते ही हैं दुनिया में। तो जो छोटी चीज़ माँग रहे हैं, दुनिया उनके लिए पर्याप्त है।

ऋषि होने का मतलब है कि “जो कुछ दुनिया दे सकती है, भाई! मुझे उससे कुछ अधिक चाहिए; अपन को ज़्यादा माँगता।“ अगर वो ज़्यादा नहीं माँगता, तो दुनिया ठीक है न? बोलो क्या चाहिए तुम्हें? छोटा-मोटा — एक ठीक-ठाक-सी पत्नी चाहिए, दो गोलू-मोलू बच्चे चाहिए, एक टू-थ्री बीएचके चाहिए, हर चार-छह महीने में एक छुट्टी, वेकेशन चाहिए; ये सब तो दुनिया में ही मिल जाएगा, इसके लिए तुम काहे को अध्यात्म की ओर जाओगे, ज़रूरत क्या है? इसीलिए आम आदमी ठीक ही करता है कि अध्यात्म की ओर नहीं जाता; या जाता भी है तो ऐसे ही मनोरंजन के लिए, कि हर छह महीने में कहीं एक यूट्यूब वीडियो देख लिया, या गए थे ऋषिकेश अध्यात्म के लिए, क्या कर आए? दो महीने का योगा *कोर्स * (पाठ्यक्रम) कर आए; तो ये बस…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org