एक गुरु से पाना चाहे और कुछ नहीं पाता है, दूजा गुरु के प्रेम में पाना भूल जाता है

बिना प्रेम के कुछ सीख नहीं पाओगे। जिनसे सीख रहे हो, उनसे लेन-देन का, दुकानदार और ग्राहक का रिश्ता नहीं हो सकता। (मूर्तियों की ओर इशारा करते हैं) ये जितनी मूर्तियाँ यहाँ उपस्थित हैं, इनको अगर देखते ही तुम्हारा मन बिल्कुल हर्षा नहीं जाता, तो उनसे कुछ पाने की सम्भावना मत सोचना।

प्रेम पहले आता है, फिर बोध।

प्रेम खिंचाव है। जब खिंचाव ही नहीं है तो मंज़िल कैसे मिलेगी? मंज़िल ही तो खींच रही है। प्रेम पहले आता है, एक रिश्ता होना चाहिए। ऐसे थोड़ी है कि जैसे कबीर साहब को पढ़ रहे हो और कबीर साहब का उपयोग किया है कि, “भाई, मेरी ज़िंदगी में बड़ी उथल-पुथल थी, शंकाएँ, उहा-पोह, कष्ट, तो साहब मैंने कबीर नाम की दवा का इस्तेमाल किया और मुझे फ़ायदा हो गया। और अब जब फ़ायदा हो गया है तो दवा…”

नहीं, ऐसे नहीं! ऐसे नहीं होता! तुम जाते ज़रूर हो कबीर साहब के पास (या किसी बुद्ध, कृष्ण, जीज़स, नानक, कृष्णमूर्ति), तुम जाते इनके पास भले ही इसलिए हो क्योंकि तुम्हें अपने कष्ट का निवारण करना था, पर निवारण इसलिए नहीं होता कि कष्ट केंद्रीय था। कष्ट तुमको ऊर्जा देता है, दिशा देता है, कि तुम किसी के पास जाओ। पर निवारण तब होता है जब कष्ट केंद्रीय रह ही नहीं जाता, और कष्ट का केंद्रीय न रह जाना ही निवारण है।

तुम गए तो इसलिए थे क्योंकि तुम परेशान थे और तुम्हें लगा कि वो तुम्हें कुछ दवाई दे देगा और तुम्हें परेशानी से मुक्ति मिलेगी। पर दवाई की छोड़ो, उसकी सुंदरता देख कर के तुम कष्ट ही…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org