एक अध्याय अर्जुन का, सत्रह अध्याय कृष्ण के

एक अध्याय अर्जुन का, सत्रह अध्याय कृष्ण के

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥४०॥

“कुल के नाश से, चले आ रहे कुल के धर्म नष्ट हो जाते हैं और कुलधर्म के नष्ट होने से पाप समस्त कुल को दबा लेता है।”

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक ४०

आचार्य प्रशांत तो अर्जुन के अनुसार उन्हें युद्ध इसलिए नहीं करना है कि उन्हें कुल के धर्म की बड़ी चिंता है। कुल का धर्म बचाना है, कुलधर्म नष्ट हो गया तो पाप सारे कुल को दबा लेगा। तो सार्वजनिक हित में अर्जुन कह रहे हैं कि, ‘मुझे युद्ध नहीं करना है। नहीं, नहीं मेरे मोह इत्यादि की तो कोई बात ही नहीं है। मैं तो एक वीर, निरपेक्ष, निस्पृह क्षत्रिय योद्धा हूँ। मोह इत्यादि तो मुझे छू नहीं जाते। वो तो बात यहाँ कुलधर्म की है, मैं इसलिए युद्ध नहीं करना चाहता। बड़ी गंभीरता से, बड़ी निष्पक्षता से मैं आपके सामने एक संवेदनशील मुद्दा रख रहा हूँ, कृष्ण। भावुकता वगैरह की कोई बात नहीं है। ना मुझे कोई भाव है, ना मुझे कोई मोह है, मैं तो एक गंभीर वयस्क की भाँति कुल के लाभ की बात कर रहा हूँ।‘

जैसे हम सब गंभीर वयस्क होते हैं और बड़ी बुद्धिमत्तापूर्ण, बड़ी परिपक्व बातें किया करते हैं — ऐसा है वैसा है। बस इतनी-सी बात है कि हमारे ये सब परिपक्व और गंभीर बातों के पीछे, हमारी बचकानी, अधपकी वृत्ति छुपी होती है। थोड़ी देर पहले क्या कह रहे थे, सारे विचार कहाँ से आते हैं? वृत्ति से आते हैं। विचारों ने गंभीरता का चोला पहन रखा होता है। उनका व्यवहार ऐसा होता है, उनका व्यक्तित्व ऐसा होता है, उनका चेहरा ऐसा होता है कि लगता है कि कोई गहरी बात है, कोई पकी हुई बात है। जबकि उनके स्रोत में क्या होती है? कोई बालक वृत्ति। ‘मेरा सेब छिन गया’, ‘मुझे फलाने की शकल नहीं पसंद आ रही’, ‘मुझे डर लग रहा है मुझे अँधेरे में बंद कर देंगे’, ‘मुझे डर लग रहा है मुझे अकेला छोड़ देंगे’ — इस तरीके की, बालक जैसी या पशु जैसी वृत्तियाँ।

और इन वृत्तियों से उठते हैं, बड़े-बड़े गंभीर विचार। विचार जो सम्मान की माँग करते हैं। कहते हैं, ‘देखो’ हम गहरे हैं, हमें सम्मान दो ज़रा। हमारी बौद्धिकता को नमन करो ज़रा।‘ बुद्धि तो सेवक की भी सेवक होती है — आत्मा की दासी वृत्ति, और वृत्ति की दासी, बुद्धि। बुद्धि को क्यों तुम अपनी स्वामिनी बना रहे हो? अभी आगे और धुरंधर तर्क आने वाले हैं, सीटबेल्ट बाँध लें।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥४१॥

“हे कृष्ण! कुल में अधर्म का प्रभाव होने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। और हे वार्ष्णेय…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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