एकाकी रहो, कृष्ण के साथ रहो!

एकाकी रहो, कृष्ण के साथ रहो!

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।

मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थिर होकर आत्मा को परमात्मा में लगाए।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १०

प्रश्नकर्ता: श्रीकृष्ण बोल रहे हैं कि “मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थिर होकर आत्मा को परमात्मा में लगाए।”

यहाँ पर जो ‘आशारहित और संग्रहरहित योगी’ कह रहे हैं, कृपया यह समझा दीजिए।

आचार्य प्रशांत: इस श्लोक का जो अनुवाद हमें उपलब्ध है, उसमें कहा गया है कि आत्मा को परमात्मा में लगाने का निरंतर अभ्यास किया जाए। तो पूछ रहे हैं कि यह आत्मा को परमात्मा में लगाने की बात क्या है। और इसी श्लोक में तुमने पूछा है कि आशारहित और संग्रहरहित होना क्या है।

पहली बात तो इसमें जो अनुवाद आप पढ़ रहे हैं, वह ठीक नहीं है। श्रीकृष्ण इसमें कहीं भी परमात्मा की बात नहीं कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि योगी योग का अभ्यास करते हुए सतत आत्मा में ही स्थित रहे; एकाकी रहे और सांसारिक प्राप्तियों की आशा और परिग्रहण से दूर रहे। बस इतना कहा है। बाकी जो बात कही गई है, वह अनुवादक की अपनी कल्पना है।

तो बिलकुल ठीक कहा, इसमें श्रीकृष्ण का उपदेश इतना ही है कि मन आत्मा में ही लगा रहे, सांसारिक वस्तुओं की आशा और सांसारिक वस्तुओं की…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org