ऋषियों ने निर्गुण के गुण क्यों बताए?
आचार्य प्रशांत: ब्रह्म को किन-किन उपाधियों से इंगित किया गया है, विभूषित किया गया है, कहो जैसे? अनिकेत। अनिकेत कह दिया वहीं से शुरुआत कर लो। तो तुम्हारे सामने दो विकल्प आ रहे हैं, एक विकल्प ऐसा है जो तुमको इस धरती पर ही किसी पार्थिव वस्तु से, व्यक्ति से बाँध देना चाहता है, घरौंदा बना देना चाहता है तुम्हारा; और दूसरा विकल्प है जो तुम्हें बाँध नहीं रहा, जो तुम्हें मुक्ति दे रहा है, तो तुम जान लो कि कौनसा विकल्प तुम्हें ब्रह्म की ओर ले जाएगा। और उपनिषद् हमसे कह रहे हैं, तुम्हारे लिए तो ब्रह्म ही श्रेष्ठ है।
इसी तरीके से ब्रह्म को और क्या कहा गया है? अज्ञेय। कौनसा विकल्प ऐसा है जो तुम्हारे पास तुम्हारे पूर्व संचित ज्ञान के कारण आ रहा है, या तुम्हारे पूर्व संचित अनुभवों के कारण ही आकर्षक लग रहा है? जो विकल्प तुम्हें तुम्हारे पुराने स्मृतिबद्ध ज्ञान के चलते ही आकर्षक लग रहा हो, और वह ज्ञान सिर्फ़ तुम्हें समाज से, शिक्षा से नहीं मिला है, वह ज्ञान तुम्हारे शरीर में भी बैठा हुआ है जो तुम्हारी जैविक पूरी संस्कारिता है उसके रूप में।
तो जो कुछ भी तुम्हें शारीरिक व सामाजिक कारणों से आकर्षक लग रहा हो, वह ब्रह्म जैसा नहीं है। ब्रह्म तो है अज्ञेय, और कोई विकल्प है जो तुम्हें इसलिए बुला रहा है क्योंकि उसके बारे में जो तुम्हारा अनुभव है, या स्मृति है, या कल्पना है, वह बड़ी रोमांचक और आकर्षक पता चल रही है, तो जान जाओ कि यह रास्ता ब्रह्म का नहीं है।
हम अभी चर्चा कर रहे हैं कि ब्रह्म को आधार बनाकर के जीवन में निर्णय और चुनाव कैसे करने हैं। ऋषि हमसे कह रहे हैं ‘अगर चाहते हो कि जीवन में तुम्हारे सब निर्णय सही बैठें, तो आधार, क्राइटेरिया (मापदंड) किसको रखो? ब्रह्म को रखो।’ बस पूछ लिया करो, यह अभी तीन-चार सामने विकल्प रखे हुए हैं, इनमें से ब्रह्म जैसा कौनसा है।
ब्रह्म के लिए ऐसे ही नाम है ‘मुक्त’। क्या नाम है? मुक्त। देख लो कौनसा विकल्प ऐसा है जो तुम्हारे बंधनों से तुमको दूर ले जाएगा, कौनसा विकल्प ऐसा है जो तुम्हारे ऊपर नयी बेड़ियाँ बनकर चढ़ जाएगा। जैसे दिखाई दे कि अभी एक ऐसा विकल्प बुला रहा है जो जीवन में नई बेड़ियाँ ही लाने वाला है, हर तरीके से — मानसिक, आर्थिक, शारीरिक, तो समझ जाओ कि यह तो ब्रह्म वाला रास्ता नहीं है। और ऋषि महाराज बोल गए थे ‘तुम्हारे लिए तो बच्चा ब्रह्म ही श्रेष्ठ है।’ तो तुरंत अस्वीकार कर दो उसको जो श्रेष्ठ नहीं है।
वैसे ही ब्रह्म को निरालंब कहते हैं। वैसे ही ब्रह्म को निर्गुण कहते हैं। निर्गुण माने जो प्रकृति से आगे का हो, सब गुण प्रकृति में होते हैं। जो कोई तुम्हें इसलिए आकर्षित कर रहा हो, जो विकल्प तुम्हें मूल्यवान लग ही इसीलिए रहा हो क्योंकि उसमें एक प्राकृतिक कर्षण है, एक प्राकृतिक कशिश है, तुरंत सावधान हो जाओ; वह रास्ता ब्रह्म का नहीं है।
ब्रह्म क्या है? निर्गुण, और वह जो रास्ता है जो तुम्हें आमंत्रित कर रहा है उसमें प्रकृति का कोई-न-कोई गुण है; वह प्रकृति का रास्ता है। प्रकृति माने माया, वहाँ माया नाच रही है, तुमको खींच रही है। ब्रह्म निर्गुण है और तुम बढ़ उसकी ओर रहे हो जिसके पास गुण-ही-गुण हैं।
और यहाँ हम जब गुण की बात कर रहे हैं तो गुण से हमारा वही आशय नहीं है जो हिंदी भाषा में होता है। हिंदी भाषा में गुण का बड़ा शुभ अर्थ होता है। जब किसी में कुछ बहुत लाभप्रद या शुभ प्रवृतियाँ होती हैं तो उसको हम कहते हैं कि यह व्यक्ति गुणी है। अध्यात्म में गुणी होना कोई अच्छी बात नहीं होती। अध्यात्म में अगर तुम गुणी हो तो इसका मतलब है कि तुम प्रकृति के क्षेत्र में बंधक हो। सब गुण तो वहीं पाए जाते हैं।
तो इसीलिए अध्यात्म में गुणों का अतिक्रमण करना होता है, गुणों से आगे जाना होता है। संसार में और आम सांसारिक भाषा में गुणी बनना होता है। अध्यात्म में गुणों से आगे जाना होता है। अध्यात्म में अगर कोई गुण है जो थोड़ा सा उचित या श्रेष्ठ माना भी जाता है तो वह सतोगुण है।
देख लो यह कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मात्र तुम्हारी जो प्राकृतिक वृत्तियाँ हैं और जो तुम्हारे मानसिक शब्द विकार हैं, उन्हीं के कारण कोई रास्ता तुमको बड़ा लाभप्रद जान पड़ रहा हो; छोड़ो उसको।
वैसे ही ब्रह्म निराधार, निरालम्ब है। उसको किसी दूसरे पर आश्रित होना स्वीकार ही नहीं। जिसके लिए कोई दूसरा है ही नहीं वह दूसरे पर आश्रित क्या होगा? तुम देख लो कि तुम्हारे सामने जो जीवन विकल्प लेकर के आ रहा है उसमें से कोई रास्ता आश्रयता का तो नहीं है, निर्भर तो नहीं हो जाओगे किसी भी तरीके से। अगर कोई रास्ता ऐसा है जिसमें तुम निर्भर हुए जा रहे हो, तुम्हारी पहचान दूसरे से जुड़ रही है, तुम्हारे हित दूसरे से जुड़ रहे हैं, तुरंत समझ जाओ कि मामला गड़बड़ है।
और जब बात आती है दूसरे से अपनी पहचान जोड़ लेने की, तो याद रख लेना चाहिए कि ब्रह्म का नाम अद्वैत भी है। ब्रह्म या ब्राह्मी अवस्था को केवली अवस्था भी बोलते हैं। मतलब होता है और कोई दूसरा है ही नहीं, किस दूसरे की याद करें? कौनसा दूसरा हमारे नाम के साथ अपना नाम जोड़ गया, किस दूसरे के साथ हमने अपनी पहचान जोड़ ली? जहाँ कहीं भी पाओ कि जो रास्ते तुम चुन रहे हो वह रास्ता तुमको और-और-और आश्रित बना देगा, बचो। और अगर कोई ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर के तुम्हारे बंधन टूटेंगे, तुम्हारी निर्भरताएँ शनै:-शनै: कम होती जाएँगी, तुम स्वावलंबी होते जाओगे, तुम निरालंबी होते जाओगे, उस रास्ते पर आगे बढ़ जाओ।
यह है मतलब ब्रह्म का चुनाव करने का, ब्रह्म को श्रेष्ठ जानने का।
चाहो तो इसी युक्ति से ब्रह्म की जो अन्य उपाधियाँ हैं, उनका प्रयोग करके भी तुम चुनाव कर सकते हो। करना है प्रयोग? एक-दो और उपाधियाँ बताओ।
असंग है वह, क्या है? असंग है; माने दो रास्ते हों, एक रास्ता ऐसा हो जिसमें जिसकी संगत कर रहे हो, वह आवश्यक कर दे तुम्हारे लिए लगातार उसकी संगति, तो बच जाना, भाग लेना। और एक दूसरा रास्ता है जिसमें जिसकी संगति कर रहे हो वह तुम्हारे भीतर की उस कमज़ोरी को ही खत्म कर दे जिसके कारण तुम संगति के लिए लालायित रहते हो, ऐसे की संगति कर लेना।
दोनों ही रास्ते संगति के हैं, पर एक रास्ता तुमको संगति रूपी पर-निर्भरता में और गहरे गाढ़ देता है, और दूसरी संगति ऐसी है जो धीरे-धीरे तुम्हारे लिए अनावश्यक बना देती है किसी दूसरे की संगति करने को। वह तुमको आंतरिक रूप से ही परिपूर्ण, स्वस्थ, आत्मनिर्भर बना देती है। यह संगति तुम्हारे लिए उचित है। पर यह तुम्हें याद सिर्फ़ तब रहेगा जब तुम्हें यह स्मरण रहे कि तुम्हारे चुनावों का आधार यह नहीं हो सकता कि तुमको क्या पसंद है, क्या नापसंद है, क्या तुमको प्रिय लग रहा है। तुम्हारे चुनावों का आधार ब्रह्म होना चाहिए।
पुराना सूत्र तुमको याद आ रहा होगा कि प्रियता से ज़्यादा महत्व होता है श्रेयता का। ये मत देखो कि प्रिय क्या है, यह देखो कि ‘श्री’ कहाँ है; ‘श्री’ माने शुभता। प्रियता नहीं, श्रेयता। और आकर्षित तुरंत क्या करेगी? प्रियता, वो एकदम खींचेगी और वो जो खिंचाव है, उसका झटका, इतना त्वरित होता है, इतना प्रबल होता है कि बचना मुश्किल होता है।
जैसे कि तुम चले जा रहे थे अपना बेहोश, बेखबर, ग़ाफ़िल, और किसी ने फंदा मारा पीछे से और फंदा आकर के बिलकुल तुम्हारी कमर में बैठ गया। और इससे पहले कि तुम चौंक भी पाओ, बहुत ज़बरदस्त झटके के साथ वह फंदा खींच लिया गया, तुम बचोगे कैसे? तुम्हें कुछ खबर ही नहीं लगी। एकदम खिंचे चले गए। कई फ़ीट, हो सकता है कि सौ-फ़ीट खिंच जाओ तब तो तुमको ये होश आए कि ‘मैं खिंच रहा हूँ’। काम इतनी तेज़ी से होता है।
तुम्हारे मन के बीच से माया की तलवार वैसे ही निकल जाती है बिलकुल जैसे मक्खन के बीच से छुरी। मक्खन को कुछ सोचने-समझने का समय थोड़े ही मिलता है, जो होता है एक झटके में, तत्काल हो जाता है। तुम्हें विरोध करने का ही समय नहीं मिलेगा, तुम अपने विचारों को संगठित ही नहीं कर पाओगे, तुम किसी निष्कर्ष पर ही नहीं आ पाओगे। जैसे कोई व्यक्ति सड़क पर चला जा रहा हो और उसको एक ट्रक टक्कर मार दे। उसको समय मिला था क्या संभलने का? उसके साथ बस कुछ हो गया। ऐसा हमारे साथ होता है और दिन में बहुत बार होता रहता है।
जो लोग याद नहीं रखते कि उन्हें अपने साथ क्या होने देना है और क्या नहीं, उनका अंजाम यही है कि उनके साथ सिर्फ़ वह होता है जो होना चाहिए ही नहीं।
लोग पूछते हैं, “अध्यात्म की ज़रूरत क्या है?” अध्यात्म की ज़रूरत इसीलिए है। तुम अगर आध्यात्मिक नहीं हो तो ऐसा नहीं है कि तुम्हारे साथ कुछ अच्छा घटेगा, कुछ बुरा घटेगा। हमारे साथ जो तय है होना, जो डिफॉल्ट (निर्धारित) है, वह प्राकृतिक है, और वह हमारे लिए अच्छा नहीं है। यह बात बिलकुल अच्छे तरीके से समझ लो, सीने में जमा लो। तुम अगर होश में नहीं हो तो भी तुम्हारी ज़िन्दगी की गाड़ी तो चलेगी ही, क्योंकि प्रकृति का काम है चलना।
तो तुम्हारी गाड़ी रुकने नहीं वाली, वह तुम्हारे होश का इंतजार नहीं करेगी। तुम होश में हो, तुम बेहोश हो, तुम ब्रह्मज्ञानी हो, तुम अज्ञानी हो, गाड़ी तो चलेगी। कैसे चलेगी? धक्के खा-खा कर, ठोकरें खा-खा कर चलेगी। हमारे सड़कों पर जो गाड़ियाँ चलती हैं, वह तो फिर भी कम अभागी होती हैं। उनको एक बार ज़ोर की टक्कर लग गई तो वह वहीं पर रुक जाती हैं। गाड़ी है, बेहोश चली जा रही है, जाकर किसी पेड़ से भिड़ गई। चलो जो हुआ सो हुआ, गाड़ी को चोट लगी, जो भीतर बैठा था उसको चोट लगी, हो सकता है भीतर बैठने वाले की मृत्यु ही हो गई हो। पर जो भी हुआ, गाड़ी का चोट खाने का सिलसिला यहीं पर रुक गया।
आदमी की दुर्दशा और गहरी है। हमारी ज़िन्दगी की गाड़ी को रुकने की तो अनुमति ही नहीं है। वह चलती रहती है। एक पेड़ से भिड़ेगी, फिर दूसरे पेड़ से भिड़ेगी, तीसरे पेड़ से भिड़ेगी। कोई रहम नहीं करने वाला कि इसने ज़िन्दगी में बहुत ठोकरें खा ली, अब इसे कृपया ठोकरें ना दी जाएँ। ना, यही बदा हुआ है, यही लिखा हुआ है। गाड़ी चलती रहेगी, गाड़ी पिटती रहेगी, गाड़ी चलती रहेगी, गाड़ी पिटती रहेगी, क्योंकि प्रतिपल जीवन में तुम्हें क्या करने हैं? चुनाव।
गाड़ी तो चलानी है, गाड़ी को चलाना ही तो चुनाव है। सीधी चलानी है, दाएँ काटनी है, बाएँ काटनी है, गति बढ़ानी है, गति रोकनी है, यही चुनाव करना है। तुम कोई चुनाव अगर नहीं कर रहे हो तो वह भी एक चुनाव है और वह बेहोशी का चुनाव है, कि ‘मैं तो अभी बेहोश पड़ा हूँ, मैं चुनाव करने की स्थिति में ही नहीं हूँ’।
गाड़ी तो तब भी चलेगी, कैसे चलेगी? ठीक वैसे चलेगी जैसे एक सोते हुए ड्राइवर (चालक) की गाड़ी चलती है। गाड़ी चल रही थी, ड्राइवर सो गया, गाड़ी रुक जाती है क्या? गाड़ी तो चलती है न। हाँ, सांसारिक गाड़ी हो और ड्राइवर सो गया हो, तो शायद दो-चार किलोमीटर में रुक जाएगी। कोई एक्सीलरेटर (वेगवर्धक) देने वाला नहीं बचा, धीरे-धीरे उसकी गति कम होती जाएगी फिर जाकर रुक जाएगी।
जीवन की गाड़ी ऐसी नहीं होती। तुम सो रहे हो तो भी वह पूरी गति से चलेगी। भिड़ती चलेगी, मारती चलेगी, ख़ुद भी चोट खाएगी, दूसरों को भी चोट देगी। और तुम जो भीतर बैठे हो उसका तो कहना ही क्या, उसको चोटें लग रही हैं और बेहोशी में लग रही हैं। उसको पता भी नहीं उसको कितनी चोटें लग रही हैं। दर्द भी तो उसको तब महसूस होगा न जब वो होश में आएगा।
हमारी बेहोशी के साथ एक बड़ी विडंबना है यह − बेहोश आदमी को चोट दो तो उसे दर्द भी नहीं पता चलता। ज़्यादातर लोग जो तुमको हँसते-खिलखिलाते दिखते हैं, ये इसीलिए हैं। ऐसा नहीं कि इनको जीवन ने घाव नहीं दिए हैं, इनको तो जीवन ने घावों से भर दिया है। इनके पास शरीर नहीं है, इनके पास शरीर में बस घावों का एक छत्ता है। मधुमक्खी का छत्ता देखा है? उसमें कहीं छत्ता नज़र आता है? सिर्फ़-और-सिर्फ़ क्या होती हैं? मधुमक्खियाँ। हममें से ज़्यादातर लोगों की हस्ती ऐसी ही होती है, छत्ते जैसी। उसमें छत्ता कहीं नहीं है, घाव-ही-घाव हैं, मधुमक्खियाँ-ही-मधुमक्खियाँ, घाव, घाव।
हम ऐसे हैं, लेकिन फिर भी हम नाच रहे होते हैं, उत्सव मना रहे हैं, पिक्चर देखने जा रहे हैं, इधर-उधर की बातें कर रहे हैं, पता कर रहे हैं दुनिया में क्या चल रहा है, यह है, वह है। बल्कि कहीं पर कोई दुर्घटना हो गई है तो उसका अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे हैं, ‘अरे उस बेचारे के साथ बहुत बुरा हो गया’, जैसे कि हमारे साथ कुछ कम बुरा हो रहा है।
यह सब कैसे संभव हो पा रहा है? ये सब इसीलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हम आंतरिक रूप से गहरी बेहोशी में हैं। हमें हमारे घोर दुःख का कुछ पता ही नहीं।
अब तुम समझ पा रहे हो कि ज़्यादातर लोग होश में आने से, माने अध्यात्म से इतना घबराते क्यों हैं? क्यों घबराते हैं? होश में आए नहीं कि बहुत ज़ोर का दर्द उठेगा। इसीलिए आम जनमानस सदा से अध्यात्म से दूर भागता रहा है।
दूर की बात है कि अध्यात्म से आनंद मिलता है। सच्चिदानंद वगैरह हटाओ, वह आखिरी बात है। पहली चीज़ क्या है? बहुत गहरा दुःख। हर किसी ने इतना संकल्प करा ही नहीं होता है दुःख झेलने का। हर किसी ने तय ही नहीं करा होता है कि जो भी हो, सच्चाई तो चाहिए, होश तो चाहिए। जब उनको बताया जाता है कि सच पता चल जाएगा, होश में आ जाओगे, आँख खुल जाएगी, लेकिन पीड़ा बहुत होगी, तो वह कहते हैं कि ‘हमें होश में आना ही नहीं।’ तो ऐसे चल रही है दुनिया की गाड़ी। बेहोशी में पार्टी चल रही है। और यह जितने लोग हैं यह भीतर से सब ज़बरदस्त रूप से शोकाकुल हैं। ऊपर-ऊपर आपको हँसते-खिलखिलाते चेहरे दिखेंगे।
क्या गड़बड़ करी थी इन्होंने, क्यों इनको इतना दुःख झेलना पड़ रहा है? इन्होंने उपनिषदों की नहीं सुनी। जब ऋषिवर बता रहे थे कि निर्णय हमेशा ब्रह्म के पक्ष में करना, तो इन्होंने ऋषिवर की उपेक्षा कर दी। इन्होंने किसके पक्ष में निर्णय कर लिया? प्रियता के पक्ष में। जो चीज़ प्यारी लग रही थी वहीं लोट गए, एकदम लोट गए। कुछ आकर्षक लगा नहीं कि — जैसे कुत्ता, थोड़ा मौसम अच्छा हो गया, किसी ने दुलरा दिया तो चारों पैर आसमान की ओर करके सड़क पर लोट जाता है। उसकी खुशी देखो।
उसकी खुशी में तो फिर भी एक मासूमियत है क्योंकि वह कुत्ता है। उसको मौसम अच्छा लगा; उसको तुमने थोड़ा सहला दिया, वह प्रसन्न हो गया; वह पीठ के बल लेट गया; पूँछ हिलाने लग गया। इंसान को नहीं शोभा देता क्योंकि तुम कुत्ते नहीं हो। कोई कुत्ता किसी आंतरिक दुःख से विह्वल नहीं होता; हम होते हैं। कभी सुना है किसी कुत्ते को अवसाद में जाकर के आत्महत्या करते हुए, सुना है? न तो कुत्ते एक सीमा से ज़्यादा शोक का अनुभव कर सकते हैं, न उनमें मुक्ति की तड़प उठती है। हममें उठती है न।
तो इसलिए हमारे लिए आवश्यक है कि वह सब कुछ जो हमें प्राकृतिक रूप से आवाज़ें देता है, खींचता है, उससे थोड़ा बचें। वह तुमको दो-चार पल का झूठा, खोखला सुख दे देगा, और पीछे दुःख की बड़ी लंबी श्रृंखला छोड़ जाएगा।
यह तुम्हारे साथ पहली बार हो रहा होता तो फिर भी सलाह दे दी जाती कि ‘चलो अभी बच्चे हो, नए-नए टपके हो आसमान से, एक-दो बार प्रयोग करके देख लो कि सुख की तरफ़ जाओगे और बहुत सारा दुःख पाओगे, तुम्हें इस बात का अनुभव हो जाए। अनुभव हो जाएगा, कुछ सीख जाओगे।’ पर बच्चे नहीं हो तुम, तुम्हारे साथ ये चीज़ पहली बार नहीं हो रही है। असंख्य बार हम इन्हीं अनुभवों से गुज़रे हैं और झूठ है यह कि हमें वह अनुभव बिलकुल भी याद नहीं। विस्मृत हो गया है बहुत कुछ, लेकिन विस्मृत होने से पहले वह अपनी छाप छोड़ गया है हमारे रेशे-रेशे में। याद हमें सब है।
पूछोगे अगर अपने मन की गहराई से तो वो तुम्हें बताएगी कि ये तुम्हारे साथ पहले भी हो चुका है। याद है न क्या कह रहे थे ऋषि हमसे? ‘कृतम् स्मर कृतम् स्मर’। यह तुमने पहले भी किया है और भोगा है, यह तुमने पहले भी किया है और भोगा है, याद करो, याद करो। जैसे पूरा एक श्लोक ही समर्पित है यही कहने को − ‘याद करो, याद करो, अपने पुराने कर्मों को याद करो। तुम यह पहले भी कर चुके हो और भुगत चुके हो। तुम क्यों अपने लिए दलदल तैयार कर रहे हो?’
प्रियता धोखा है। श्रेयता तुमको अनाकर्षक भी लगती है, कड़वी भी लगती है तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुमने आदतें बुरी डाल ली हैं। जैसे किसी को मीठे की बहुत आदत लग जाए, तो फिर ज़रूरी नहीं है कि उसे बुरा लगाने के लिए तुम उसे कुछ कड़वा खिलाओ। किसी को आदत लग गई है कि वह चाशनी-ही-चाशनी पीयेगा, तो ज़रूरी नहीं है कि तुम उसे करेला दो तभी उसे बुरा लगेगा। तुम उसको अगर साधारण स्वाद वाला कोई फल भी दे दोगे तो उसे रुचेगा नहीं। सेब भी तो मीठा होता है न। पर जिसको रसगुल्ले की आदत लग गई हो, उसको तुम सेब दोगे तो क्या बोलेगा? “फीका है!”
हम ऐसे हो गए हैं। ‘श्रेयता’ सेब जैसी है; फीकी नहीं है, उसमें एक नैसर्गिक मिठास निश्चित रूप से है, पर श्रेयता हमको कड़वी लगती है प्रियता की चाशनी की तुलना में।
लोग कहते हैं न साधना बड़ी मुश्किल है, अध्यात्म का पथ कंटकाकीर्ण है, यह झूठी बातें हैं। यह सब बातें तुम ख़ुद को केंद्र बनाकर बोल रहे हो। यह सब बातें तुम अपने अनुभवों और आदतों और अपनी वृत्तियों को आधार बनाकर बोल रहे हो। तुम कह रहे हो ‘मुझे तो साहब रसगुल्ला ही पसंद है। मेरे लिए तो जो रसगुल्ले की चाशनी है वही पैमाना है, वही मापदंड है। तो मेरे लिए तो सेब और अंगूर भी क्या हैं? फीके हैं, फीके।’ केला भी अगर लेकर के जाओ, बढ़िया मीठा केला, तो आदत अगर उसको लगी हुई है चाशनी की तो केले को भी क्या बोलेगा? फीका। हम ऐसे हैं।
तो सत्य, ब्रह्म कोई अपने-आपमें फीके नहीं हैं, उनमें भी बड़ा रस है। सत्य को ‘सरस’ भी कहा गया है। आगे चलकर हम लेंगे, उपनिषद् सत्य के बारे में कहते हैं ‘रसोवैसः’ − वह रस जैसा है, सत्य को कहा गया है रस जैसा। पर हमें उसमें कोई सरसता, कोई माधुर्य प्रतीत ही नहीं होता। सत्य को मत दोष देना, तुम्हें जो लत लगी हुई है चाशनी चाटने की उसको दोष देना। उसके कारण लोग ग्रंथों से दूर भागते हैं, उसी के कारण लोग अध्यात्म से दूर भागते हैं, उसी के कारण कोई आ जाए दो-चार खरी बातें बताने, उससे दूर भागते हैं। कहते हैं, “यह उतना मीठा तो बोल ही नहीं रहा जितना वह चाशनीबाज बोलता है!”
तो फिर ऋषि भी आश्चर्य कर रहे हैं, कह रहे हैं ‘हमें तो पता था कि सबसे मीठा सत्य ही होता है। यह सत्य से भी ज़्यादा मीठा क्या आ गया?’ माया वहाँ कोने में खड़ी मुसकुरा रही है, वह कह रही है, ‘चाशनी मेरा नाम।’ सच्चिदानंद बेचारे बैठे ही रह गए, चाशनीबाई मैदान मार ले गई। ऋषि जन हमें बताते ही रह गए कि वहाँ पर सत् है, चित् है, आनंद है। अरे, आनंद अगर वहाँ है तो पूरी दुनिया दूसरे छोर पर क्यों नज़र आ रही है? अगर ब्रह्म में आनंद है तो बाकी लोग आनंद बोतलों में और बाज़ारों में क्यों खोज रहे हैं, भाई? यह तुम्हारे कौतूहल का विषय नहीं है?
हमको तो कहा गया कि मुक्ति भी वहाँ है, आनंद भी वहाँ है, सौंदर्य भी वहाँ है, शिवत्व भी वहाँ है। जो कुछ तुम माँग सकते हो वह बताया गया कि वह सब कुछ ब्रह्म के द्वार हैं। अगर जीवन में जो कुछ भी पाने लायक है वह सब ब्रह्म के द्वार हैं, तो सारी दुनिया दूसरे द्वारों में कतार बाँध कर क्यों खड़ी है?
क्योंकि ब्रह्म मीठा नहीं लग रहा। आदत ग़लत पड़ गई, और यह मानने को भी राज़ी नहीं हैं कि हमारी आदत ग़लत है। क्या कह रहे हैं? ‘यह ग्रंथों की भाषा बड़ी क्लिष्ट होती है, कुछ मज़ा नहीं आता।’ यह नहीं मानोगे कि तुम्हारी भाषा बर्बाद हो चुकी है। ग्रंथों की भाषा को खराब बता देंगे।
“आचार्य जी, आपके वीडियो बड़े लंबे होते हैं। अभी-अभी एक वीडियो देखा, वह पूरे ग्यारह मिनट का था, ग्यारह मिनट! झेल ही नहीं सकते हम। आचार्य जी, एक मिनट से कम के वीडियो बनाया करिए।” मेरा वीडियो लंबा है, मैं नीचे आ जाऊँ, तुम ऊपर नहीं उठोगे। मेरे पास तो चाशनी नहीं है न कि तुमको अट्ठावन सेकंड में चटा दूँ।
“आचार्य जी, आप इतना रुक-रुक कर क्यों बोलते हैं? मैं तो १.५ एक्स (वीडियो की गति) पर सुनता हूँ। तेज़ बोला करिए तेज़, ऐसे-ऐसे।” मैं यह करूँ, तुम जीवन में, और श्रवण में थोड़ी स्थिरता नहीं ला सकते। मधुमेह के रोगी हो तुम और मुझसे उम्मीद कर रहे हो कि मैं तुम्हें और चाशनी चटाऊँगा। तुम्हारा दुश्मन होता, भाई, तो तुम्हें चटा भी देता।
समझ में आ रही है बात कि मैं क्यों और नीचे नहीं आ सकता, मैं क्यों और तेज़ नहीं हो सकता? मेरे और नीचे आने का, मेरे और तेज़ होने का, या मैं बात को और ज़्यादा मिश्रित करके बोलने लगूँ, पनियल करके बोलने लगूँ, डाइल्यूट (पतला) करके, तो इसका मतलब यही होगा कि मैं मधुमेह के रोगी को चाशनी चटा रहा हूँ। तुम्हारी जो हालत खराब है, वह चाशनी ही चाट-चाट कर हुई है, और तुम मुझसे भी अपेक्षा कर रहे हो कि मैं तुम्हें चाशनी चटाऊँगा। जिस दिन बिलकुल मैं भी आसुरी हो गया और दुनिया से दुश्मनी निकालने की सोचने लगा, उस दिन मैं भी यही करूँगा। क्या? तुम मुझसे जितनी उम्मीदें करते हो वह सब पूरी कर दूँगा।
ब्रह्म को चुनना माने अपने विरुद्ध जाना। वह आखिरी स्थिति होती है जहाँ तुम ऐसे हो जाते हो कि तुम्हारी कामनाएँ सब ‘ब्रह्म-रंगी’ हो जाती हैं। फिर तुम अपनी कामना के साथ भी चलो तो भी ब्रह्म तक ही पहुँचते हो, वह बहुत आखिरी बात होती है।
ये बिलकुल लिख कर रख लो कि साधना की, जीवन की बहुत उच्चतर स्थिति तक ब्रह्म को चुनने का एक ही और बिलकुल सीधा मतलब है − स्वयं को ना चुनना, और कुछ भी नहीं। तुम इस चक्कर में पड़ोगे कि ‘ब्रह्म कहाँ है, हम चुनना चाहते हैं ब्रह्म को, आज ब्रह्म को वरमाला डालनी है, ब्रह्म कहाँ है?’ तो ब्रह्म कहीं नहीं मिलेगा। ना कोई व्यक्ति है, ना वस्तु है, ना विचार है, ना ही इकाई है, ना छवि है, ना कल्पना है। ब्रह्म कहाँ से मिल जाएगा, भाई? तुम ब्रह्म को चुनना चाहते हो, ब्रह्म ढूँढे नहीं मिलेगा।
लेकिन ब्रह्म का चुनाव करने का सीधा और स्पष्ट तरीका है कि स्वयं को ना चुनो, बात ख़त्म। अपने खिलाफ़ चले जाओ। जिधर को बिलकुल लुढ़कने को तैयार हो, वहाँ लुढ़कने से बचो। श्रम करना पड़ेगा क्योंकि ढलान पर लुढ़कना तो बहुत आसान है न। कोई श्रम लगता है? ना लुढ़कने के लिए श्रम करना पड़ेगा। जहाँ बिलकुल लोट जाने का मन कर रहा हो कि ‘आहाहा! क्या सोंधी-सोंधी शीतल कीचड़ है, यहीं लोट जाते हैं बिलकुल। भीनी खुशबू भी उठ रही है, थोड़ा चाटेंगे भी।’ वहाँ अपने-आपको नकेल डालनी पड़ेगी, ‘नहीं, यह नहीं करना है, यहाँ नहीं लोट जाना।’
अब तुम्हारे चेहरों पर प्रश्न-चिन्ह बना हुआ है। कह रहे हैं ‘हम इतने बुरे हैं कि जो भी हमारी इच्छा हो रही हो उसके खिलाफ़ ही जाएँ?’ जी, यही समझ लो कि ग्रंथों का आधा सार यही है। जो इतनी सी चीज़ सीख ले वह जीवन में बहुत आगे जाएगा। इतना आगे चला जाएगा कि फिर उसे अपना विरोध करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। यही लालच है।
अगर चाहते हो कि तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति हो, तो अपनी इच्छाओं का तब तक विरोध करते रहो जब तक इच्छाएँ इस लायक न हो जाएँ कि उनकी पूर्ति की जा सके। इच्छा में कोई बुराई नहीं है, तुम्हारी इच्छाओं में बुराई है, तुम्हारी इच्छाएँ गंदी है।
तो इच्छा पूर्ति का अधिकार तुमको निश्चित रूप से है, पर तुम उस अधिकार का उपयोग सिर्फ़ तब करना जब तुम्हारी इच्छाएँ साफ़ हो गईं हो, शुद्ध हो गईं हो। और इच्छाओं को साफ़ और शुद्ध करने का तरीका क्या है? इच्छा के खिलाफ़ जाना। इच्छा को साफ़ करना है तो क्या करना होगा? इच्छा कैसी है? इच्छा पायदान जैसी है। पायदान जानते हो, क्या? जो डोरमेट या डोररग होता है। उसको साफ़ करने का तरीका क्या होता है? उसको पीटो।
इच्छा ऐसी ही है। उसको जितना पीटोगे उतना स्वच्छ होकर निकलेगी। और तुम उसको जितना चाटोगे, उतना तुम पाओगे कि तुम्हारा ही मुँह कीचड़ जैसा हो गया है। आते-जाते लोग क्या कर रहे हैं पायदान का? उस पर अपनी धूल, अपना मल, अपना कीचड़, छोड़ते जा रहे हैं, यही कर रहे हैं न?
तो यह जो दुनिया-भर के पाँव की कीचड़ है, वह जिस पायदान पर बैठ जाती है उसका नाम है ‘मन’। और मन पर ये जो कीचड़ बैठ गई है, इसका नाम है ‘इच्छा’। हमारा मन ऐसा ही है। इस पर से पूरी दुनिया गुज़रती है और उस पर अपना कीचड़ पोंछती जाती है। उसको हम सोचते हैं कि ये तो हमारे मन की सामग्री है। कभी हम कह देते हैं ‘मेरी स्मृति है’, कभी हम अनुभव कह देते हैं, कभी कह देते हैं ‘ज्ञान है मेरा’। ज्ञान नहीं है, वो तुम्हारे मन पर दुनिया की पाँवों की कीचड़ है। उसकी सफ़ाई करना है तो क्या करना पड़ेगा? डंडा लेकर क्या करना पड़ेगा? पीटना पड़ेगा। चाटना नहीं है, क्या करना है? पीटना है।
मुझे दिखाओ कोई जिसने पायदान को चाट-चाट कर साफ़ कर लिया हो।
प्रेमियों का क्या करें? उनको लगता है कि कीचड़ को चाटेंगे तो साफ़ हो जाएगी। उसे चाटा नहीं जाता, पहले तो उसे बिलकुल कड़क धूप में रख दिया जाता है ताकि वह सूख जाए, और फिर जब वह सूख जाए तो फिर उसको, दे दनादन दे दनादन।
क्या इसका मतलब यह है कि हम दुश्मनी निकाल रहे हैं, शत्रुता है? नहीं। उससे शत्रुता नहीं है, सफ़ाई से प्यार है।
तो क्या अध्यात्म कामना का विरोधी है? अध्यात्म मूर्खतापूर्ण कामना का विरोधी है। अध्यात्म आत्मघाती कामना का विरोधी है। ऐसी कामना मत करो जो कामनाकार को ही भारी पड़ जाए। कामना तुम कर रहे हो ताकि तुमको संतुष्टि, तृप्ति, आनंद मिले। और तुम्हारी कामना का परिणाम हुआ कि अगर तुमको दुर्गति मिल गई, तो क्या कामना करी।
अध्यात्म तुम्हें कला सिखाता है सही कामना करने की, और सही कामना करने के लिए तो ज़रूरी है कि मूर्खतापूर्ण कामनाओं को पहले विदा दी जाए।
अब वहाँ से सवाल आ रहा है, मूक सवाल। मूक सवाल ये आ रहा है कि, ‘आप कह रहे हैं कि अध्यात्म सिर्फ़ मूर्खतापूर्ण कामनाओं को विदाई देने का नाम है, पर मैंने तो यह पाया है कि मैं जब भी ब्रह्म को, अध्यात्म को चुनता हूँ तो मेरी तो सारी ही कामनाएँ विदा होने लगती हैं।’ तो मैं कहूँगा कि आशय समझ लो फिर। क्या आशय निकला? कि तुम्हारी सारी कामनाएँ ही मूर्खतापूर्ण हैं। इसमें बेचारा अध्यात्म क्या करे?
दस चोर खड़े हों और तुम किसी पुलिसवाले को ले आओ, और तुम इन दसों को कह रहे हो कि ‘यह मेरे दोस्त हैं।’ और वह इन दसों को पहचान कर कह दे कि, “यह तो एक नंबर का पॉकेटमार है, और यह लफंगा है, और यह तड़ीपार है।” और वह एक-एक करके उन दसों की कुंडली खोल कर रख दे, तो इसमें पुलिसवालों का दोष है या तुम्हारी बुद्धि का जो ऐसे यार बनाती है, बोलो?
तो तुम्हारी सारी-की-सारी कामनाएँ ही ऐसी हैं कि जब सत्य का पुलिसमैन आता है तो सबको चोर पाता है, तो इसमें सत्य की ग़लती है या तुम्हारी कामनाओं की? तुम क्यों ऐसे हो कि सब मूर्खतापूर्ण कामनाएँ रखी है।
लेकिन क्या किसी कानून ने, क्या किसी पुलिस ने, ऐसा नियम रखा है कि तुम यार बना ही नहीं सकते? उसने तो बस यह बता दिया कि जिसको तुम अपना बड़ा मित्र समझ रहे हो, यह शहर का छटा हुआ सेंधमार है। उसने तो बस यह बता दिया, उसने यह थोड़े ही बोला है कि तुम आगे से और किसी से दोस्ती करना ही मत। दोस्ती करो न, पर गिरहकटों से दोस्ती क्यों कर रहे हो? क्या पता उसका एक दिन एक हाथ तुम्हारे ही पॉकेट (जेब) में हो। और किसी को दोस्त बना लो तो उसके जेब में हाथ डालना और आसान है। वह तो दोस्त ही है।