ऊब कहीं बाहर से नहीं, तुम स्वयं से ही ऊबे हुए हो

प्रश्नकर्ता: सर, आपने बताया कि जो भी करने से तुम्हारा मन हल्का होता है वो करो। लेकिन अगर इस प्रक्रिया में ही मेरा मन भारी हो तो?

आचार्य प्रशांत: न भारी हो रहा है या मन का भारीपन सामने आ रहा है? इन दोनों बातों में फर्क करना पड़ेगा। मन भारी तो सदा से था पर ऐसे बेहोश थे कि अपनी ही बिमारी का पता नहीं था। बीमारी अचेतन में घुस करके बैठी हुई थी। ओर होश की प्रक्रिया है अचेतन को चेतन कर देने की कि कुछ भी छुपा ना रह जाए। तो हज़ार दुःख, दर्द, कष्ट, संताप जो कहीं गहरे जड़ जमाकर बैठे हुए हैं, वो बाहर आ सकते हैं। पर वो बाहर आ रहे हैं भीतर से या भीतर आ रहे हैं बाहर से?

प्र १: दूसरा वाला (भीतर आ रहे हैं बाहर से)।

आचार्य: भीतर आ रहे हैं बाहर से। यदि भीतर आ रहे हैं बहर से तो बचो, बिल्कुल बचो। पर ध्यान से देखोगे तो आम-तौर पर ऐसा होता पाओगे नहीं। यदि वास्तव में प्रक्रिया होश की है, अगर भ्रमित ही नहीं हो, तो तब जो कष्ट होगा, और ये बात बिल्कुल ठीक है, जागने में कष्ट होता है, पर जागने का जो कष्ट है, वो बहर वाला तुमको नहीं दे रहा, वो बहर से भीतर नहीं आ रहा, जागने का कष्ट है कि जग रहे हैं तो दिखाई दे रहा है कि कितनी मूढ़ता में जीवन बिता रहे थे, कि कितना व्यर्थ का भोज ढो रहे थे, कि मन के अंदर कितने सांप-बिच्छू पाल रखे थे।

वो सांप-बिच्छू जब तक मन के भीतर थे, तब तक का काम चल रहा था। अब जब वो अचेतन से, अर्ध्चैतन्य से, चैतन्य में आ रहे हैं तो डर लग रहा है। इस मौके पर पीछे मत हट जाना। क्योंकि ये उपचार चल रहा है, ये रेचन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org