उस पैसे में दाँत होते हैं जो पेट फाड़ देते हैं
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प्रश्नकर्ता: मेरे काम में दान-दक्षिणा दोनों प्राप्त होते हैं, और मेरी जानकारी में ‘दान’ अलग विषय है और ‘दक्षिणा’ अलग विषय है। दक्षिणा मतलब हुआ कि आपने जो सेवा कर्म किया, और दान जो आपको मिलता है। दान की महिमा तो बहुत सुनी है परंतु दान के विषय में कुछ साधु-संतों ने मुझे एक बात बताई है जिससे थोड़ा भय उठा है मन में। आपसे स्पष्टता चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि, “बेटा, दान के पैसे में दो दाँत होते हैं, सोच समझकर लिया करो, नहीं तो वो पेट फाड़ देगा।”
और रामायण में भी पढ़ा है कि:
हरइ शिष्य धन शोक न हरइ, सो गुरु घोर नरक महुँ परई।।
~ तुलसीदास जी (रामचरितमानस ७/९९)
इसीलिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि आप ‘दान’ के विषय में सत्संग करें। मेरा इस शिविर में आने का, आपके समक्ष बैठने का, एकमात्र उद्देश्य है कि इस विषय पर सत्संग पा सकूँ और जिस कार्य में मैं अभी जुड़ा हुआ हूँ, उसी कार्य के संदर्भ में मुझे आपसे स्पष्टता मिले।
आचार्य प्रशांत: दान में दाँत नहीं होते, दाम में दाँत होते हैं।
दाम में भी दाँत नहीं होते अगर भौतिक चीज़ है, और ईमानदारी से उसको भौतिक ही चीज़ बताकर, दाम लगाकर बेचा गया है। साधारण बाज़ारू क्रय-विक्रय है अगर, तो दाम में भी दाँत नहीं होते।
आपने कहा कि आपको सलाह मिली है कि, “दक्षिणा तो ठीक है, पर दान में दाँत होते हैं जो पेट फाड़ देते हैं।”
दान अगर सच्चा हो तो दान में दाँत नहीं होते, और दाम भी अगर तथ्यता के साथ किसी वस्तु के, किसी भौतिक चीज़ के लगाए गए हैं तो दाम भी पेट नहीं फाड़ देगा। दिक़्क़त तब आती है जब रूप ‘दान’ का होता है और भीतर यथार्थ ‘दाम’ का होता है। तब उस झूठे दान के सिर्फ़ दाँत ही भर नहीं होते, उसके ज़हर-बुझे दाँत होते हैं, फिर वो पेट ही नहीं फाड़ देता, मन और जीवन भी फाड़ देता है।
दाम क्या है? दान क्या है? और दान के रुप में दाम क्या है? इन तीनों में अंतर करेंगे। समझिएगा!
‘दान’ है किसी भौतिक वस्तु को उस जगह पहुँचाना जहाँ वो सर्वाधिक उपयोगिता की हो। और अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो किसी भी वस्तु की मनुष्य के लिए उपयोगिता एक ही है — कि वो वस्तु मनुष्य के मन को शांत करे, उसे मुक्ति और सत्य तक पहुँचाने में सहायक बने। ये किसी भी भौतिक वस्तु की उपयोगिता है। वो भौतिक वस्तु कुछ भी हो सकती है — रुपया, पैसा, कपड़ा-लत्ता, ज्ञान-मकान, ये सब भौतिक ही हैं। जो कुछ भी विचारों के तल पर पकड़ा जा सके, जिसकी बात की जा सके, जिसकी छवि बनाई जा सके, जिसका ज़रा आदान-प्रदान हो सके, वो सब भौतिक ही है।