उसके बिना तड़पते ही रहोगे

उसके बिना तड़पते ही रहोगे

राम बिनु तन को ताप न जाई

जल में अगन रही अधिकाई

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम जलनिधि में जलकर मीना

जल में रहि जलहि बिनु जीना

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा

दरसन देहु भाग बड़ मोरा

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला

कहै कबीर राम रमूं अकेला

राम बिनु तन को ताप न जाई

संत कबीर

वक्ता: कबीर अपने एक पसंदीदा प्रतीक को लेकर आगे बढ़ रहे हैं कि, ‘‘मैं जल की बूँद हूँ।’’ एक और प्रतीक है कबीर का कि, ‘’मैं कुछ हूँ, जो समुन्दर में है, क्या ?’’

श्रोता : मछली ।

वक्ता : बढ़िया। तो उसी प्रतीक को ले कर आगे बढ़ रहे हैं कि, ‘’हूँ तो मैं, अथाह जल में।’’ जल माने क्या? पूर्ण। वो जो चहुँ दिस है, कण-कण में समाया हुआ है, जिसकी थाह नहीं मिलती है, वही अनंत समुंद्र। ‘’मैं हूँ वहीँ, पर जल में हो कर के भी, मैं उत्तप्त हूँ, ज्वर सा आया हुआ है, माथा तपता रहता है, मन में गर्मी रहती है।

राम बिनु ‘ तन ’ को ताप न जाई

आप उसको ‘मन’ का ताप समझ लीजिए। राम बिना मन का ताप जा नहीं रहा है, आग लगी सी रहती है।

जल में अगन रही अधिकाई

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org