उलझे सम्बन्धों को कैसे सुलझाएँ?
प्रश्न: क्या सम्बन्ध इनके अलावा भी होते हैं — शरीर, विचार, गुरु?
वक्ता: अभी मैं अगर बताऊँगा भी, तो वो वैचारिक ही हो जाएगा ना। सोचिये, उसके बारे में आपको जानकारी मिल गयी, वो जानकारी क्या है? विचार है। तो ये पता भी चल गया कि, हाँ इसके अलावा भी कोई सम्बन्ध होता है, तो बात वैचारिक रूप से यहाँ बैठ जाएगी, इतना ही होगा। सम्बन्ध ऐसी चीज़ नहीं होते हैं जिसमें आप वही रहे आएँ, जो आप हैं, और सम्बन्ध कुछ ख़ास हो जाए।
आप का होना और सम्बन्ध का होना, एक ही बात है। आपके मन की जो गुणवत्ता है, ठीक वही गुणवत्ता आपके सम्बन्धों की होगी। मन और सम्बन्ध में कोई अंतर है ही नहीं। सम्बन्धों का ही नाम ‘मन’ है। सम्बन्धों का ही नाम ‘मन’ है। मन की गुणवत्ता ही, सम्बन्धों की गुणवत्ता है। अगर आप ये पाते हों कि दुनिया भर से सम्बन्ध नकली हैं, सतही हैं, द्वेष बहुत है उनमें, तो बस समझ लीजियेगा कि मन ऐसा ही है — सतही। गहराई नहीं है उसमें।
श्रोता १: मतलब इसका किसी दूसरे से कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
वक्ता: नहीं, बिल्कुल नहीं।
श्रोता १: मतलब हमारे मन की जो दशा है, जैसा हम सोचते हैं, जो हमारी…।
वक्ता: ‘आपके’ सम्बन्ध होते हैं। सम्बन्ध दो व्यक्तियों के मध्य उतने नहीं होते, जितने आप के होते हैं। ‘सम्बन्ध’ का ये अर्थ नहीं है कि मेरे और उसके बीच में क्या सम्बन्ध है। आपको क्या पता कि उसके मन में क्या चल रहा है। ‘सम्बन्ध’ का अर्थ है — “मेरे मन में क्या चल रहा है।”