उम्र के साथ उलझनें बढ़ना!
प्रश्न : सर, जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उलझनें बढ़ती जा रही हैं। सर, पैसों की दिक्कत होया कुछ और प्रॉब्लम हो, जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, परेशानियाँ और बढ़ती चली जा रही हैं। तो ऐसा क्या है, जो अब होने लगा है, जो पाँच साल पहले नहीं था? ऐसा क्या बदलाव आ गया है हमारे अन्दर कि हम मुश्किलों का सामना ही नहीं कर पाते?
वक्ता: (हँसते हुए) तुम होशियार होते जा रहे हो ज़्यादा, और कोई बात नहीं है!
बच्चा पैदा होता है, छोटा होता है, उसके लिए दुनिया बड़ी सरल होती है। उसने अभी बहुत कुछ सोख नहीं लिया होता है। जैस-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ रही है, अनुभव बढ़ रहा है, तुम यही कर रहे हो कि तुम दुनिया से दुनिया की सारी चालाकियाँ सोखे ले रहे हो। और जो जितनी चालाकियाँ सीख लेगा, वो उतना ज़्यादा कष्ट में, दुविधा में, अन्दर बँटा — बँटा सा रहेगा।
जानते हो कैसी-कैसी चालाकियाँ? यह सारी कोशिश जैसे आप कह रहे थे कि “भविष्य के बारे में बहुत सोचते हैं”; यह एक प्रकार की चालाकी ही है कि “भविष्य आये और उससे पहले मैं तैयार रहूँगा। मैं तैयार रहूँगा! देखो, मैंने चाल खेल ली। तुम आये और मैं तैयार बैठा था”। यह काम तो दुश्मनों के साथ किया जाता है ना? जब दो सेनायें आपस में लड़ती हैं, तो क्या करती हैं? कि “तू आये, तू मुझ पर हमला करे, उससे पहले मैं पूरी तैयारी कर लूँगा और एक पोज़िशन बनाकर बैठ जाऊँगा कि तू आया और मैंने तुझे…?
श्रोता १: जीत लिया।
वक्ता: यही काम तुम भविष्य के साथ करना चाहते हो। बात-बात में जुगत लगाते हो। तुम कह रहे हो “जब पाँच…