उमरिया धोखे में बीत गयो रे

उमरिया धोखे में खोये दियो रे

पाँच बरस का भोला भला, बीस में जवान भयो।

तीस बरस में माया के कारण, देश-विदेश गयो।

उमर सब धोखे में….

चालीस बरस अंत अब लागै, बाढ़ै मोह गयो।

धन धाम पत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।।

बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परया।

लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर न गयो।।

उमर सब धोखे में …

बरस साठ-सत्तर के भीतर, केश सफ़ेद भयो।

वात-पित्त-कफ घेर लियो है, नैनन नीर बहो।।

न हरि भक्ति न साधो की संगत, न शुभ कर्म कियो।

उमर सब धोखे में….

कहै कबीर सुनो भाई साधो, चोला छूट गयो।।

संत कबीरदास

आचार्य प्रशांत: ‘उमरिया’ बड़ा लम्बा अंतराल हो जाता है समय का तो आदमी को छुपने का बहाना मिल जाता है। पहली बात तो उमरिया अभी बीती नहीं पूरी, दूसरी बात, इतना लम्बा है कि अब उसकी जाँच पड़ताल कौन करे कि धोखा हुआ है कहीं।

उससे ज़्यादा अच्छा ये रहता है कि समय का छोटा सा खंड उठाईये। और उसको देख लीजिये कि धोखे में बीता है कि नहीं बीता। दस मिनट, आधा घंटा, एक घंटा, आधा दिन — वहाँ ज़्यादा साफ़ हो जाता है कि धोखे में बीता है कि नहीं बीता।

जो कुछ भी पूर्णता से करे जाने पर और बेहतर हो सकता था, और ज़्यादा तृप्ति दे सकता था, लेकिन पूरे…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org