उपलब्धियाँ न प्राप्त कर पाने का दुःख

जिस माहौल में रहते हो, जिस संगत में रहते हो, उससे ज़रा अवकाश लिया करो, दूर हो जाया करो। दूर होने के बाद दूरी से जब देखोगे, तो बहुत कुछ तुम्हें हास्यास्पद लगेगा। और जिस चीज़ पर तुम हंस पड़े, उस चीज़ से तुम आज़ाद हो गए।

तुम ग़ुलाम ही तब तक हो जब तक चीज़ों को गंभीरता से ले रहे हो। इसीलिए वो तुम्हारी गंभीरता टूटने नहीं देते, इसीलिए वो ऐसी-ऐसी भारी बातें करते हैं कि तुम ज़रा डरे-डरे रहो। हमारी गंभीरता डर के अलावा और कुछ होती भी नहीं। दूर हो जाओ तो हंसी छूट जाएगी, हंसी छूटी नहीं कि अब फंसोगे नहीं दोबारा।

दिक़्क़त क्या आती है, डरे आदमी को जब डर से मुक्त कराओ तो एक बार को उसे और डर लगता है; तो वो कहता है कि, “पहले वाला डर ही ठीक है क्योंकि वो ज़रा कम डरावना और जाना-पहचाना है।” उसे जब उसके सुपरिचित डरों से आज़ाद करो तो पहली बार, प्रथम दृष्टया उसका डर बढ़ जाता है। और ये बड़ा खेल है माया का कि डर से आज़ादी पाने के लिए तुम्हें डर का साक्षात्कार करना पड़ता है, तुम्हें और ज़्यादा डरना पड़ता है।

इसीलिए डर से आज़ादी हो नहीं पाती क्योंकि तुम तो वो हो जो पहले नन्हे से डर में फंसे हुए थे। तुम तो नन्हे से डर का ही उल्लंघन नहीं कर पा रहे थे न…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org