ईश्वर प्राप्ति का अनुभव कैसा होता है?
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ईश्वर प्राप्ति का कोई अनुभव नहीं होता। अनुभव तो सारे किसी अनुभव करने वाले को होंगे न, अनुभोक्ता को होंगे न? वो अनुभोक्ता अपना काम करता रहता है, वो प्राकृतिक अनुभोक्ता है।
जिसको तुम ‘मुक्ति’ या ‘मोक्ष’ कहते हो, उसके पूर्व भी, जो अनुभोक्ता है वो अनुभव करता रहता है। और उसके पश्चात भी, जो अनुभोक्ता है वो अनुभव करता रहता है।
तो अंतर क्या पड़ता है?
अंतर ये पड़ता है कि अहम् वृत्ति, बेचैन चेतना पहले उन अनुभवों में शांति खोजती थी, पहले उन अनुभवों के सामने प्यासी घूमती थी, अब वो उन अनुभवों से बहुत नाता नहीं रखती।
देख लेती है कि अनुभव चल रहे हैं, वो तृप्त बैठी रहती है।
तो अनुभव अगर होते भी थे, बहुत तीव्र, तो वो मुक्ति से पूर्व होंगे, क्योंकि मुक्ति से पूर्व तुम्हें अनुभवों से बड़ी आशा रहती है। तुम कहते हो, “कोई नया अनुभव मिल जाए , मज़ा आ जाए”। तुमने देखा है न आम संसारी को, वो अनुभवों को लेकर कितना आतुर रहता है? कि — “चल भाई, आज कुछ नया खाते हैं, कुछ नया अनुभव होगा। चल किसी नई जगह पर घूम आते हैं, कुछ नया अनुभव होगा।”
बोरियत बहुत है, ऊब मिटाने के लिए कुछ नया करते हैं।
तो अनुभवों को लेकर ज़्यादा आग्रह किसका रहता है?
जो बेचैन है, जो बंधन में है।
जो मुक्त हो गया, वो किससे मुक्त हो गया?
वो अनुभवों से ही तो मुक्त हो गया।
अब वो अनुभवों का खेल चलने देता है।
ये अनुभव-अनुभोक्ता का खेल चल रहा है, इसमें हम कहीं नहीं हैं — ये ‘मुक्ति’ कहलाती है। अब तुम अनुभवों से मुक्त हो गए। यही ईश्वर प्राप्ति है, यही ‘मोक्ष’ है। खेल चल रहा है बाहर, तुम उससे कोई उम्मीद रखकर नहीं बैठे हो। तुम्हारी उम्मीदें सब पूरी हुईं, तुम पूर्ण हो।
“चलता रहे खेल बाहर, हमें खेल बुरा भी नहीं लग रहा। पर हम उस खेल के सामने भिखारी तरह नहीं खड़े हैं।”
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