ईमानदारी के अलावा कोई विधि नहीं

आचार्य प्रशांत: अच्छा, आपने एक चीज़ गौर करी है? यूँ ही, कहीं रहो, घर में, बाज़ार में, बोलना आसान होता है। यहाँ आते हैं, शुरुआत में, बोलना थोड़ा सा अटक जाता है और फिर कुछ देर बाद, या आधे घंटे बाद, यहाँ भी बोलना आसान हो जाता है, बहाव आ जाता है। बाज़ार में भी शब्द बोल रहे होते हैं, कुछ देर बाद यहाँ पर भी शब्द झरने लगेंगे। दो बहाव दिख रहे हैं हमको, और बीच में एक ये अंतराल आता है, अड़चन का। ये क्या है?

प्रश्नकर्ता: एक तो ये है कि पहल कौन करे?

आचार्य जी: ये सब बाज़ार में क्यों नहीं होता? ‘पहल कौन करे?’ ये सब कुछ।

प्रश्नकर्ता: और दूसरी यह कि यहाँ पहुँचने तक सवालों की लड़ियाँ होती हैं दिमाग में, और यहाँ बैठते ही कागज़ है, कलम है और मुझे लिखने का मन कर रहा है पर मेरा दिमाग खली हो चुका है। वो सारे सवाल याद ही नहीं आते हैं।

आचार्य जी: और बहुत सारे सवाल होते हैं, उनको आप लिख लेते हैं, किसी को व्हाट्स ऐप करना है, किसी दुकानदार से दाम पूछने हैं, किसी और चीज़ के बारे में कुछ तहक़ीक़ात करनी है। आसानी से कर लेते हैं। मैंने कहा, दो बहाव हैं, और बीच में अड़चन। दो बहाव हैं, एक बहाव है बाज़ार का और एक बहाव इस सत्र में भी आ जाता है। सत्र आरम्भ होने के थोड़ी देर बाद। बीच में सब गटमट हो जाता है। ये क्या है? ये कौन से दो बहाव हैं, और बीच में आने वाला वो रोड़ा कौन सा है?

प्रश्नकर्ता: मुझे लगता है कि बाज़ार में एस्केप करना बहुत आसान है। पर यहाँ हम जो बैठे हैं, सबका एक दूसरे के बारे में कोई परसेप्शन है। और सवाल पूछने से यह डर है कि…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org