इसे कहते हैं असली जवानी!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्वामी विवेकानंद के जीवन से क्या सीख मिलती है? अध्यात्म और जवानी में क्या सम्बन्ध है?
आचार्य प्रशांत: देखो, किताबी ज्ञान देने वाले तो हमेशा से बहुत रहे हैं। स्वामी विवेकानंद अनूठे हैं उस आदर्श से जो उन्होंने जी कर प्रस्तुत किया। बहुत कम तुमने साधु-संत, सन्यासी देखे होंगे, जो इतने सुगठित-सुडौल शरीर के हों जितने विवेकानंद थे। खेल की, कसरत की उनकी दिनचर्या में बँधी हुई जगह थी। और यही नहीं कि सिर्फ़ व्यक्तिगत रूप से खेलते थे; अपने साथियों को भी कहें कि — “आवश्यक है, व्यायाम आवश्यक है।”
अब इस बात को समझना; सूक्ष्म है।
एक ओर तो शरीर को बनाकर रखना है, और दूसरी ओर शरीर से चिपक भी नहीं जाना है — जैसे शरीर एक उपकरण है, एक संसाधन है; इस्तेमाल करना है उसका। लेकिन जिस चीज़ का इस्तेमाल करना है, उसको इस्तेमाल करने के लिए ही सही, स्वस्थ और मज़बूत तो रखोगे न? तो मज़बूत तो इसको रखना है।
उन्होंने कहा, “मज़बूत रखना है, लेकिन इससे पहचान नहीं बाँध लेनी है। जब मौक़ा आएगा, इसको हँसते-हँसते त्याग भी देंगे। और शरीर की जितनी हम सेवा कर रहे हैं, जितना इसको तेल पिला रहे हैं, जितना इसको व्यायाम दे रहे हैं, इससे दूना इससे काम लेंगे। तो देह, ये मत सोचना कि मैं तेरा सत्कार भर कर रहा हूँ। देह की सेवा बिलकुल करेंगे; उसे अच्छा भोजन देंगे, माँसपेशियों को ताक़त से भरपूर रखेंगे, और ये सब करके तुझसे काम वसूलेंगे।”
देह काम वसूलने के लिए है। देह चमकाकर रुई में सुरक्षित सजाने के लिए थोड़े ही है।