इतने बड़े अधिकारी हो तुम?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, पिछले एक महीने से मैं अष्टावक्र गीता पढ़ रहा हूँ। तो मैंने अपने जीवन में भी देखा, शांति के रास्ते में शरीर और मन बीच-बीच में बाधा बनते हैं। तो इसी विषय पर जब मैंने अष्टावक्र गीता देखा; उसमें दो श्लोक मिले जो इससे रिलेवेंट थे, लेकिन वो दो श्लोक सच तो होंगे तभी लिखे हुये हैं। लेकिन पूरी तरह से मेरे लिए सच नहीं हैं। वो दो श्लोक आपको सुनाना चाहूँगा।

न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता

कर्ता न वा भवान्।

चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी

निरपेक्षः सुखं चर॥१५- ४॥

न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो ॥४॥

ये शरीर का था और जो मन का था, वो पाँचवाँ श्लोक है इसी अध्याय का-

रागद्वेषौ मनोधर्मौ

न मनस्ते कदाचन।

निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा

निर्विकारः सुखं चर॥१५- ५॥

राग(प्रियता) और द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो ॥५॥

तो अष्टावक्र गीता को पढ़ने का ये तो तरीका समझ में आया कि श्लोक दर श्लोक पढ़ना पड़ेगा। मतलब श्लोक के साथ ठहरना पड़ेगा। तो इन दोनों श्लोकों के साथ जब मैं ठहरता हूँ तो कुछ देर तक तो समझ में आता है, शांति बनी रहती है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org