इतनी कामवासना प्रकृति नहीं, समाज सिखाता है

तुम्हें जो चीज़ खाए- ले रही है वो प्राकृतिक काम नहीं है तुमने बड़ा जोर दिया है शब्द कामुकता पर जैसे कि काम दोषी हो, इसका जिम्मेदार काम नहीं है, इसका जिम्मेदार काम का सामजिक संस्करण है।

एक तो होता है प्राकृतिक काम जो कि प्रकृति में, पौधों में, पशु- पक्षियों में, यहाँ तक कि नन्हें बालक- बालिकाओं में भी पाया जाता है, उसमें नदी सा बहाव होता है। वो वैसी ही बात होती है जैसे वृक्ष पर पत्ते-फूल आ रहे हों, उसमें किसी ने क्या अपराध कर दिया काम उसका नाम है और उसमें कोई दोष, कोई अपराध, कोई ग्लानि वाली बात नहीं।

समाज एक साथ तुम पर दो तरह के दबाव बना रहा है, पहले तो वो तुम्हारी वासना को उदीप्त कर रहा है, तुम्हारे भीतर काम की आग भड़का रहा है हजार तरीकों से, काम की आग भड़काने का तरीका यही नहीं होता कि स्त्री के सामने पुरूष के और पुरूष के सामने स्त्री के भड़काऊ, नग्न चित्र आदि लाकर टांग दिए गए, ना वही बात नहीं होती।

काम का अर्थ होता है कि तुम पदार्थ में आत्मिक तृप्ति खोजने लगे, ये काम की परिभाषा है। काम का अर्थ यह होता है कि तुम्हें लगने लगा कि तुम्हें दिली सुकून मिल जाएगा रूपए से, पैसे से, धंधे से, सोने से और जब इतने तरीको से तुम मानने लग जाते हो कि आत्मिक शांति मिल जाएगी तो पदार्थों की सूची में एक नाम जुड़ना तय है, क्या आदमी की देह।

कामुकता अध्यात्म की दृष्टि में हर उस लालसा का नाम है जो तुम पदार्थ के प्रति रखते हो, देह भर की बात नहीं है। एक दम बुड़ा जाओगे तो देह के प्रति आसक्ति ख़त्म भी हो सकती है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org