इतनी कामवासना प्रकृति नहीं, समाज सिखाता है
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने अपने मन को बहुत टटोला और पाया कि मेरा मन डरा हुआ है और अपने आपको हीनता भरी निगाहों से देखता है। मुझे इतना जिस चीज़ ने गिराया है वो है मेरी कामुकता। इस कामुकता ने मुझसे बहुत गलत काम करवाए हैं जिससे मैं अपने आपको बहुत हीन महसूस करता हूँ पर जब से मैं इस शिविर में आया हूँ मुझ पर ये काम हावी नहीं हो रहा है और मैं अच्छे से जी रहा हूँ। अन्यथा तो मुझे यही लगता रहता है कि मैंने इतना गलत कुछ किया है कि मेरी तो मौत भी दर्दनाक होगी, परम प्रभु से कुछ छिपा तो है नहीं। हालत मेरी ऐसी है कि मेरे साथ कुछ भी गलत हो रहा हो या मेरी तबीयत भी खराब हो तो मेरे दिमाग में यही आता है कि ये इसलिए हो रहा है क्योंकि मैं दोषी हूँ। मुझे लगता है कि अब ये सब मेरे साथ नहीं तो किसके साथ होगा? पिछले दो दिन से ऐसा नहीं हुआ। क्या मैं आज की तरह हर दिन जी सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: तुम्हें जो चीज़ खाए ले रही है वो ‘प्राकृतिक काम’ नहीं है। तुमने बड़ा ज़ोर दिया है शब्द ‘कामुकता’ पर जैसे कि काम दोषी हो। समझना बात को- तुम में अगर हीन भावना है, तुम ग्लानि से भरे रहते हो, लगातार दोषी अनुभव करते हो तो इसका ज़िम्मेदार काम नहीं है, इसका ज़िम्मेदार काम का सामाजिक संस्करण है।
एक तो होता है प्राकृतिक काम- जो प्रकृति में, पौधों में, पशुओं में, यहाँ तक कि नन्हें बालक-बालिकाओं में भी पाया जाता है। उसमें नदी-सा बहाव होता है। वो वैसी ही बात होती है कि जैसे वृक्ष पर पत्ते-फूल आ रहे हों, उसमें किसी ने क्या अपराध कर दिया? काम उसका नाम है और उसमें कोई दोष, कोई ग्लानि, कोई अपराध वाली बात नहीं है। उसमें कोई दोष होता, कोई अपराध होता तो परमात्मा तुम्हारे शरीर पर जननांग बनाता ही क्यों? जरूरत क्या थी? आँख देता, कान देता, होठ देता, खाल देता, यौननेंद्रियाँ क्यों देता? पर परमात्मा ने जैसे तुमको हाथ दिये हैं, पाँव दिये हैं, आँख दिए हैं, कान दिये हैं, वैसे ही जननांग भी दिये हैं। तुम माँगने तो नहीं गये थे? और न उसने तुमको कामेंद्रियाँ इसलिए दी कि तुम विशेष रूप से कुछ अपराधी हो, कि दोषी हो, कि लालसा से भरे हुए हो।
ऐसा तो कोई पैदा होता नहीं कि जिसके आँख, कान हो और जननांग न हो। ऐसा होता है कोई? ऐसा तो होता नहीं। परमात्मा जैसे हाथ-पांव, नाक, कान बख्श रहा है, वैसे ही वो भी बख्श रहा है। उसमें क्या तुमने गुनाह कर दिया? चूक दूसरी जगह हो रही है उस पर तुम उंगली नहीं रख पा रहे। उसको समझो ज़रा- समाज एक साथ तुम पर दो तरह के दबाव बना रहा है। पहले तो वो तुम्हारी वासना को उद्दीप्त कर रहा है, तुम्हारे भीतर काम की आग भड़का रहा है हज़ार तरीकों से। काम की आग भड़काने का अर्थ यही नहीं होता कि स्त्री के सामने पुरुष के और पुरुष के सामने स्त्री के भड़काऊ, नंगे चित्र आदि लाकर…