इंसान होना वरदान या अभिशाप?
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल के वीडियो "मौत के राज़" में आपने बताया कि अहम्-वृत्ति की मूल चाह मुक्ति है, पर अन्य जो आपके विडिओज़ हैं उनमें हमें ये सुनने को मिला है कि प्रकृति तो मुक्ति की राह में बाधा होती है, उसकी डिज़ायर (इच्छा) सस्टेनेन्स (बचे रहने) और प्रोक्रिएशन (वंश-वृद्धि) की होती है। तो प्रकृति मुक्ति चाह रही है या मुक्ति राह में बाधा है?
आचार्य प्रशांत: कौन है जो मुक्ति चाहेगा? अहम् चाहेगा न, अहम्। वो अहम् जब प्रकृति में जितने जड़-चेतन पदार्थ हैं उनसे ही लिपटने-चिपटने लगे, लिप्त-आसक्त हो जाए तो प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा है। नहीं तो प्रकृति स्वयं ही तो मुक्ति चाह रही है।
असल में जब इस तरीके के सवाल आते हैं तो वो ऐसे पूछे जाते हैं कि जैसे ये सब प्रश्न किसी बाहरी वस्तु के बारे में हों, ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) हों। ये सवाल ऑब्जेक्टिव नहीं होते; इन सवालों में हमेशा ये पूछा जाना चाहिए, "किसके लिए?"। तो प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा है, किसकी राह में बाधा है? अहम् की। अब अहम् प्रकृति का ही एक तत्व है, ठीक है? लेकिन प्रकृति में और भी तत्व हैं, कौन-से तत्व हैं? सब जितने ये तुम्हें चारों ओर चीज़ें दिखाई दे रही हैं।
तो वो जो अहम् है, जिसे मुक्ति चाहिए, अगर वो इन्हीं सब तत्वों में देख ले कि कुछ रखा नहीं है, तो उसे मुक्ति मिल जाती है और उसके माध्यम से प्रकृति को मुक्ति मिल जाती है। और वो अहम्, जो अपने-आप में प्रकृति का हिस्सा ही है, वो प्रकृति के ही तत्वों से अगर लिप्त हो जाए, बिलकुल मेल कर ले, तो अहम् के लिए फिर प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा हो जाती है।
भगवद्गीता के शब्दों में तुम इसे ऐसे भी समझ सकते हो कि कृष्ण कहते हैं कि वो जो मुक्ति चाह रहा है, वो प्रकृति का वो हिस्सा है जिसे कहते हैं 'परा प्रकृति'। प्रकृति के समझ लो दो हिस्से हो गए। एक है वो जिसे मुक्ति चाहिए, उसको बोलते हैं 'परा प्रकृति'; वो प्रकृति का ही हिस्सा है, उसको नाम दिया 'परा प्रकृति'। और प्रकृति के सब जो बाकी हिस्से हैं, जो जड़-पदार्थ हैं, जिनमें चेतना नहीं, जिन्हें मुक्ति जैसी कोई कामना नहीं, उनको कहते हैं 'अपरा प्रकृति'।
ये दोनों हैं क्या? दोनों प्रकृति के ही हिस्से हैं। प्रकृति में ही 'परा प्रकृति' भी है, 'अपरा प्रकृति' भी है। उसी 'परा प्रकृति' को हम अभी तक किस नाम से सम्बोधित करते आए हैं? अहम्। तो वो जो 'परा प्रकृति' है उसको मुक्ति चाहिए। किससे मुक्ति चाहिए? 'अपरा प्रकृति' से। तो ऐसे है।
प्र: तो 'परा प्रकृति' का 'अपरा प्रकृति' से संयोग हो जाता है।
आचार्य: उसी को फ़िर 'पुरुष' का 'प्रकृति' से लिप्त हो जाना कहते हैं। जब 'अपरा प्रकृति' से ही आसक्त हो जाती है 'परा प्रकृति' तो उसको फिर हम ऐसे भी कह देते हैं कि 'पुरुष' 'प्रकृति' के खेल में फँस गया। और उसी को हम अभी तक कहते आएँ हैं कि अहम् दुनियाभर के पदार्थों से, चीज़ों से बिलकुल…