इंद्रियों पर चलना है परधर्म

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३.३४।।

इन्द्रियों का अपने-अपने विषय में आसक्ति और द्वेष का होना अवश्यम्भावी है। उनके वश में नहीं आना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों मोक्ष के बाधक शत्रु हैं।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३४)

आचार्य प्रशांत: ‘ये अपना काम करेंगी, बस तुम इनके वश में मत आ जाना। इन्हें करने दो इनका काम, तुम करो अपना काम। अपना काम याद रखो!’ और अपना काम क्या होता है, इसी को लेकर के आगे जो बात कृष्ण कहते हैं, वो गीता के प्रबलतम श्लोकों में से एक है।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३.३५।।

सुंदर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है। अपने धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३५)

“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।“ तो अब परधर्म में जान रहे हो न किसका धर्म? चौंतीसवें श्लोक पर जाओ तो पैंतीसवाँ समझ में आ जाता है। ‘इंद्रियाँ अपने धर्म का निर्वाह कर रहीं हैं, तुम अपने धर्म का निर्वाह करो। इंद्रियाँ परायी हैं, इंद्रियों को उनका धर्म निभाने दो, तुम इंद्रियों का धर्म मत निभाने लग जाना, क्योंकि परधर्म भयावह होता है।‘

‘अपने धर्म में तुम आज मर भी जाओ अर्जुन, तो कोई बात नहीं’ — “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” — ‘पर इंद्रियों के धर्म पर मत चलने लग जाना! आत्मा के धर्म पर चलते हुए मर जाओ, कोई बात नहीं, मन के धर्म पर मत चलने लग जाना! मन को अपना काम करने दो।‘

‘मन रोएगा, मन शोक करेगा। सामने द्रोण हैं, उनको जब तुम्हारा बाण लगेगा, हो नहीं सकता अर्जुन कि तुम रोओ नहीं। मन को शोक होगा, आँखों को अश्रु होंगे, बिलकुल ठीक है। मन को अधिकार है न अपना काम करने का? आँखों को भी अधिकार है न रोने का? आँखें रोएँ, गला रूँधे, वो उनका धर्म है। निभाने दो उन्हें उनका धर्म, उनके धर्म में भी तुम हस्तक्षेप मत करना; लेकिन तुम्हारा धर्म इस समय तीर की नोंक पर बैठा है, तुम अपने धर्म से भी पीछे मत हटना।‘

समझ में आ रही है बात?

हम दो हैं, और ये जो दो हैं इनका कोई मिलन हो नहीं सकता, और दोनों को रहना एकसाथ ही है। तो कैसे रहें? दोनों को भले ही एक ही घर में रहना है, पर एक अपना काम करे, दूसरा अपना काम करे — ये मनुष्य की स्थिति है। जैसे एक जोड़ा हो जिसे रहना एक ही घर में है, सम्बन्ध-विच्छेद हो नहीं सकता। उस घर का नाम क्या है? शरीर। उसके भीतर दो रहते…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant