आस्तिक और नास्तिक

नास्तिक कोई होता ही नहीं है। लोग अलग-अलग तरह से आस्तिक हैं। नास्तिक कोई नहीं होता। जब तुम कहते हो, “अस्ति,” तो तुम किसकी अस्ति बता रहे हो, आस्तिकता का अर्थ है — तुमनें हाँ भरी, “अस्ति” — है। तो तुम किसको कह रहे हो कि “है”?

ज़रूर अपने मन की ही किसी छवि को कह रहे हो कि है। परमात्मा को तो यह कह पाना कि, “है,” बड़ी असम्भव बात है। ज़मीन है, कुर्सी है, कैमरा है, खम्बा है, ये सब “हैं”। परमात्मा को अस्ति कैसे बोल दोगे? अस्ति तो उस चीज़ को बोलोगे, जो सीमित है। अस्ति तो उस चीज़ को बोलोगे जो सामने है, दृष्टव्य है, इन्द्रियगत है। तो, जो आस्तिक बोलते हैं, वो भी अंततः अस्ति बस अपने आपको बोल रहे हैं। मैं हूँ, तो मेरे पास कोई परमात्मा की छवि है।

यही हाल नास्तिकों का है। वो भी जब बोल रहे हैं, “न अस्ति”, तो वो किसका निषेध कर रहे हैं? परमात्मा का तो निषेध किया नहीं जा सकता। तुम बिलकुल ये कह सकते हो कि एक कप नहीं है, “कप न अस्ति”। कप के बारे में कहा जा सकता है कि वो है, या नहीं है। परमात्मा के बारे में कैसे बोल दोगे, “न अस्ति?” तो, नास्तिक भी जब कह रहा है कि ‘नहीं है’, तो वो कह रहा है कि ‘मैं हूँ और मेरा कथन है कि परमात्मा नहीं है।’

दोनों ही स्थितियों में, दोनों एक बात पर तो राज़ी हैं, क्या? “मैं हूँ।” तो दोनों ही क्या हुए?

तुमने ये तो मान लिया ना कि तुम हो? और ‘तुम हो’ से श्रृंखला शुरू होती है, जिसकी आखिरी कड़ी का नाम है, परमात्मा। तुम इतना ही मान लो यदि, कि और कुछ नहीं है संसार, बस मेरा ही प्रक्षेपण है, “मैं तो हूँ,” तो तुम आस्तिक हो।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org