आलस के मज़े

आचार्य प्रशांत: आलस के मज़े होते हैं। आलस से ज़्यादा मज़ेदार कुछ मिला ही नहीं अभी तक!

बहुत मोटे-मोटे बच्चे देखे हैं मैंने, तीन साल, चार साल की उम्र तक घर पर पड़े थे एकदम मोटे, उनका स्कूल में दाखिला होता है वह तुरंत पतले हो जाते हैं। दोस्त-यार मिल गए, खेल का मैदान मिल गया, अब दिन-भर भागा-दौड़ी। चाहता कौन है कि चुपचाप बैठें रहे! घर में क्या था? वही मम्मी, वही पापा।

बारहवीं पास करके जितने आईआईटी में पहुँचते थे, उनमें से आधे बिलकुल थुलथुल और पहले सेमेस्टर के बाद घर लौट कर आते थे सब बिलकुल… (उंगली से पतले होने का इशारा करते हुए)। क्योंकि वहाँ इतना कुछ मिल गया कि कौन बिस्तर में पड़े रहना चाहता है। नए-नए दोस्त-यार, खेलने की इतनी सुविधाएँ, रात-भर इधर-उधर करो, एक कैंटीन से दूसरे कैंटीन जा रहे हैं, एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल जा रहे हैं, कभी कुछ कर रहे हैं कभी कुछ कर रहे हैं। अपने आप पतले हो गए क्योंकि कुछ ऐसा मिल गया जो बिस्तर से ज़्यादा मूल्यवान था, सुंदर था, आकर्षक था। आलस सिर्फ़ यह बताता है कि जीवन में ऐसा कुछ है नहीं जिसकी ख़ातिर तुम दौड़ लगा दो। जैसे ही वह मिलेगा दौड़ना शुरू कर दोगे।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org