आध्यात्मिक ग्रंथों की क्या उपयोगिता है?
ग्रंथ ज्ञान नहीं देते हैं। ग्रंथों से ज्ञान नहीं मिलता है। हालांकि पारंपरिक रूप से ऐसा कहा गया है, और ऐसा माना भी गया है कि ज्ञानोपार्जन होता है, ज्ञानमार्ग ही है पूरा। पर ग्रंथ ज्ञान नहीं देते, ग्रंथ गवाही देते हैं। आपके सामने दो खड़े होते हैं प्रार्थी।
हम कुछ नहीं। हम अहंता हैं। हम तो अपनी मिश्रित चेतना हैं। लेकिन अपनी दृष्टि में हम राजा होते हैं, क्योंकि हम ही चुनते हैं। मंदिर जाना है, या नहीं जाना है, ये भी तो हम चुनते हैं न? तो हम अपनी नज़र में तो इतने बड़े हैं, कि हम ये भी चुनाव कर लेते हैं कि हमें भगवान अभी चाहिए, या नहीं चाहिए।
तो हम बैठे होते हैं न्यायधीश की कुर्सी पर, और हमारे सामने दो खड़े होते हैं प्रार्थी।
प्रार्थियों में एक तो होता है — सत्य, और दूसरा होता है — भ्रम। अगर एक सत्य है, तो दूसरा तो भ्रम ही होगा। अब ये सुनने में बात अजीब है कि — ऊपर जो बैठा है, वो अहंकार है। और उसके सामने सत्य प्रार्थी की तरह खड़ा है।
हाँ, बिलकुल ऐसा ही है ।
हमारे सामने परमात्मा प्रार्थी की तरह ही तो खड़ा है। हम कभी उसकी सुनते हैं, कभी उसकी नहीं सुनते हैं। तो ऐसे में ग्रंथ काम आते हैं। वो गवाही दे देते हैं। अब आपके सामने सत्य खड़ा है, और भ्रम खड़ा है। ग्रंथ आ गया। आप तो न्यायधीश बने हुए हो। और न्यायधीश क्या माँगता है? गवाही लेकर आओ, सबूत लेकर आओ। अब झूठ के पास बहुत सबूत होते हैं।
सत्य के पास सबूत नहीं होता है। इसलिए हारता कौन है? सत्य।