आत्मा कहाँ है?
भ्रम वाली बात ये है कि आप आत्मा नहीं बोलते हो, आप ‘मेरी आत्मा’ बोलते हो, और ‘मेरी’ से आपका मतलब होता है: मेरा शरीर; आपने आत्मा को भी शरीर के अन्दर बैठा दिया है।
‘आपकी’ समझ थोड़ी ही है, जैसे चेतना आपकी नहीं होती, वैसे ही समझ भी आपकी नहीं होती है।
जब तक समझ ‘आपकी’ है, तब तक वो सिर्फ़ आपकी मान्यता है, मत है, वो ‘समझ’ नहीं है। समझ अव्यक्तिक होती है, ‘आपकी’ नहीं होती है। धर्म के इतिहास में सबसे बड़ी भूल यही हुई है कि आदमी ने आत्मा को शरीर के भीतर अवस्थित कर दिया है।
देखिये, आत्मा की जो पूरी बात है वो कही ही इसलिए गई थी कि आपको समझ में आए कि ये सब कुछ जो सब दिखाई देता है, जो पदार्थ है, भौतिक है, ये इन्द्रियों से भीतर आता है, इन्द्रियों द्वारा ही निर्मित है, ये पूरा खेल सिर्फ मानसिक है, शरीर भी पदार्थ है।
तो आत्मा शब्द ही इसीलिए रचा गया था कि आपको समझ में आए कि शरीर के परे, जगत के परे, पदार्थ के परे, एक परम सत्य है, इसलिए दिया गया आत्मा।
और होशियारी क्या करी आदमी ने?
कि आत्मा को अपने भीतर बैठा लिया।
आत्मा क्या है?
“वो मेरे कहीं इधर-उधर पाई जाती है, शरीर के भीतर होती है। शरीर के भीतर नहीं होती, तो कम से कम मन के भीतर तो होती ही है!”
जिसको देखो वही चिल्ला रहा है –‘मेरी आत्मा! मेरी आत्मा!’
मेरी आत्मा का क्या मतलब होता है?