आत्मज्ञान में तर्क का स्थान
वक्ता: वितर्क आत्मज्ञानं।
सारे तर्क मन में ही उठते हैं पर हर तर्क ज्ञान की ओर नहीं ले जाता। तर्क सारे उठते मन में ही हैं पर हर तर्क ज्ञान की ओर नहीं ले जाता।
श्रोता: सर, इसमें लिखा है वितर्क आत्मज्ञानं। तो वितर्क आत्मज्ञान के तल तक जाता है।
वक्ता: हर तर्क आत्मज्ञान की ओर नहीं ले जाता। तर्कों में कुतर्क भी आता है। कुतर्क और वितर्क में क्या अंतर है? कुतर्क उठता है विश्वास से, अतीत से और वितर्क उठता है श्रद्धा से। कुतर्क कहता है, मुझे पता है और उस पता होने के अनुरूप मैं वास्तविकता को देखना चाहता हूँ। मुझे अच्छे से पता है कि रोहित(श्रोता कि ओर इशारा करते हुए) बहुत भला आदमी है। अभी रोहित क्या कर रहा है? मान लो सो गया। तो मेरा कुतर्क क्या होगा? यह इतना भला आदमी है, इतना भला आदमी है कि मेरी बातें सुन कर समाधि में चला गया। यह कुतर्क है। मुझे पहले ही पता है कि यह? तो अब यह जो कुछ भी कर रहा है वो मुझे नहीं दिखेगा। मुझे जो पता है उसके अनुरूप मैं देखूँगा कि यह क्या कर रहा है। यह कुतर्क है।
वितर्क श्रद्धा से उठता है। वितर्क कहता है कि मुझे जानना है। वितर्क कहता है कि मुझे अपने ही जालों को साफ़ करना है।
वितर्क काटता है अतीत को, कुतर्क काटता है यथार्थ को।
वितर्क भी काटता है । दोनों, हर तर्क कैंची ही होता है। वितर्क काटता है अँधेरे को, माया को, अतीत को। दोनों काटते हैं और कुतर्क काट देता है उस रास्ते को जो सत्य की ओर ही जा रहा हो। काटते दोनों ही हैं तर्क का काम ही है काटना।