आत्मज्ञान और कर्म
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कहा जाता है कि आत्मज्ञान केवल विचार से होता है, तो यहाँ विचार से क्या आशय है?
आचार्य प्रशांत: आत्मविचार। रमण महर्षि भी विचार की उपयोगिता पर बड़ा महत्व देते थे। पर वशिष्ठ या रमण अगर विचार कहें, तो जो हमारा साधारण, विक्षिप्त विचार है, उसकी बात नहीं कर रहे। वह दूसरी कोटि का विचार है, वह दृष्टि है। जैसे कबीर कहते हैं, “साधो करो विचार,” वो देखने की बात कर रहे हैं, समझने की बात कर रहे हैं। तो जहाँ पर विचार कहे कोई मनीषी तो समझिएगा आत्मज्ञान — स्वयं को देखना; स्वयं के बारे में सोचना उतना नहीं जितना स्वयं को देखना।
प्र२: कर्म पुरुषार्थ से होता है। पुरुषार्थ से क्या आशय है?
आचार्य: पुरुषार्थ से आशय है उचित कर्म। हम कर्म होने नहीं देते है।
कर्म आत्मा से उठते संवेग की पूर्णता और परिणति है। आत्मा से जो उठता है, वह विचार माध्यम से होता हुआ अंततः कर्म ही बनना होता है, तब जा करके उसका वर्तुल पूरा होता है। (ह्रदय की ओर संकेत करते हुए) यहाँ से उठा, (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) इसको माध्यम बना के गुज़रा, (हाथ को इंगित करते हुए) और अंततः यहाँ तक पहुँचा।
हमारे साथ कुछ ऐसा होता है कि ह्रदय से तो उठता है लेकिन मस्तिष्क पर जाकर अटक जाता है। हम शुद्ध कर्म, तीव्र कर्म में इसलिए नहीं उतर पाते क्योंकि कर्म का स्थान विचार ले लेता है। कर तो आप तब पाएँ न जब विचारों की उहापोह से मुक्त हों, हाथ पूरी ऊर्जा के साथ चलें, बिना अड़चन के चलें। उसके लिए आवश्यक होता है कि मन न चल रहा हो; मन यदि चल रहा है तो हाथों को नहीं चलने देगा, कर्म को नहीं होने देगा।
बात ह्रदय से, आत्मा से उठनी चाहिए। रास्ते में माध्यम से उसे कोई बाधा नहीं मिलनी चाहिए।