आचार्य जी, आप कौन हैं?
मैं कौन हूँ, ये तुम पर निर्भर करता है।
तुम मुझमें जो पाना चाहोगे, वही देखोगे।
अगर तुम्हें बाज़ार से भिन्डी-लौकी खरीदनी है, तो मैं कोई नहीं हूँ। तुम यहाँ पाए ही नहीं जाओगे, यहाँ भिन्डी-लौकी का कोई काम नहीं। तुम्हें अगर किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने का रोमांच लेना है, जो दुनियावी तौर पर सफल हो सकता था, पर हुआ नहीं — तो मैं वो हूँ। तुम आओ, और कह दो, “आज मैं एक ऐसे आदमी से मिलकर आया जो आई.आई.टी., आई.आई.एम., सिविल सर्विसेज़ करके अब न जाने क्या कर रहा है।”
तुम ज्ञान इकट्ठा करना चाहते हो, तो तुम यहाँ आकर ज्ञान सुन सकते हो — मैं वो हूँ। तुम कहोगे, “मैं एक ज्ञानी से मिलकर आ गया।”
तुम्हारी नज़र निर्धारित करती है — मैं कौन हूँ। और अगर तुम्हें पार जाना है, भवसागर लाँघना है — तो दोस्त हूँ मैं तुम्हारा। जैसे मेरा इस्तेमाल करना चाहो, कर लो। ये पक्का है, तुमसे भिन्न मैं कुछ भी हो नहीं सकता — ये मेरी मजबूरी है।
तुम जो नहीं हो, वो मैं हो नहीं सकता। और तुम बदलकर देखो, मैं तत्काल बदल जाऊँगा।
इतने लोग अभी यहाँ बैठे हैं, तुम्हें क्या लगता है — सब एक ही बात सुन रहे हैं? तुम वो सुन रहे हो, जो तुम हो। तुम मुझमें वो देख रहे हो, जो तुम हो।
अचरज मत मानना अगर कोई ऐसा भी हो, जिसको सिर्फ़ इस कुर्ते से सरोकार हो। जिसकी चेतना में कपड़ा-ही-कपड़ा भरा हो, उसके लिए मैं कौन हूँ? एक ‘कुर्ताधारी’, बस। जिसकी चेतना में शरीर-ही-शरीर भरा हो, उसके लिए कौन हूँ मैं? एक ‘शरीर’, बस। स्त्री साहिकाएँ आती हैं, और…