आओ तुम्हें जवानी सिखाएँ

शरीर से जवान होने के लिए कुछ करना नहीं होता। समय के बहाव में बहना होता है बस। जानवर भी जवान हो जाते हैं। आंतरिक रूप से जवान होने के लिए बड़ी ईमानदारी चाहिए। नहीं तो ये बहुत संभव है कि आप शारीरिक तौर पर बच्चे से जवान हो जाएँ, फिर बूढ़े हो जाएँ, फिर मर भी जाएँ, लेकिन वास्तविक जवानी कभी घटने ही न पाए। शरीर अपनी यात्रा पूरी कर गया, चक्र पूरा घूम आया, और भीतर से क्या रह गए? अविकसित या अर्धविकसित; छौने से ही रह गए। यही ज़्यादातर लोगों का हाल भी तो है न। शरीर कैसा भी हो जाए, हो सकता है अस्सी-नब्बे साल के हो गए हों — भीतर से कैसे रह जाते हैं? वो छौने ही हैं भीतर से। आंतरिक विकास हुआ ही नहीं और तुर्रा ये है कि कहते हैं “देखो हम तो अब बुज़ुर्ग हो गए हैं, हमारी उम्र पिछत्तर की है। चलो हमें सलाम करो, पाँव छुओ।”

जिनकी आँखें हों, उन्हें दिखाई देता है कि वो दिखते पिछत्तर के हैं, अंदर से अभी साढ़े-सात के भी नहीं हैं — दुधमुंहे हैं। अब कैसे इनकी बात मान लें, कैसे इनको सम्मान दे दें? चलो, रस्म-अदाएगी किए देते हैं। शरीर बूढ़ा रहा है तो शरीर का ही चरण-स्पर्श कर लेते हैं। ये हो जाता है फिर। भीतर-ही-भीतर तो पता रहता है कि इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो आदरणीय हो, पूजनीय हो।

किसी व्यक्ति में तब ही कुछ आदरणीय, पूजनीय, सम्माननीय होता है जब वो व्यक्ति उसको समर्पित हो गया हो — जो एकमात्र सम्मान और आदर के योग्य है। नहीं तो इंसान कोई कैसे सम्मान का पत्र हो सकता है? इंसान तो हाड़-मास-मिट्टी है। उसमें क्या ऐसा सम्माननीय है? इंसान इज़्ज़त के काबिल तभी बनता है जब इंसान ने अपने से आगे किसी को, किसी ऊँचाई को इज़्ज़त देनी शुरू कर दी हो।

वही आदमी, जो अपने से आगे की किसी ऊँचाई को इज़्ज़त देना शुरू कर देता है — आध्यात्मिक अर्थों में जवान कहलाता है। लेकिन मैं फिर कह रहा हूँ — अपने से आगे को इज़्ज़त देना तभी हो पाएगा जब पता हो कि भीतर बड़ी बेइज्जती का मामला चल रहा है। पहले अपनी नज़रों में थोड़ा गिरना पड़ता है, तब जाकर हस्ती उठती है। जो नाहक ही अपनी नज़रों में बड़े सूरमा, उस्ताद बने बैठे हैं, वो क्यों आध्यात्मिक तल पर कभी उन्नति-प्रगति, आरोह करेंगे? वो तो अपनी नज़र में पहले ही क्या हैं? बड़े फ़न्ने ख़ाँ हैं। वो कहेंगे — “हमें उठने की ज़रूरत क्या? हम तो ‘उठे’ ही हुए हैं।”

तो पहले अपनी अकड़ को थोड़ा टूटने देना होता है। पहले देखना होता है कि भीतर बड़ा अंधेरा है। जैसे कोई पुरानी सीलन भरी बदबूदार गुफ़ा — बड़ी दुर्गंध उठती है। जब तुम अपने प्रति थोड़ी उपेक्षा, निराशा, वितृष्णा से भर जाते हो, तभी तो अपनेआप को छोड़ पाओगे न? नहीं तो पकड़े ही रहोगे खुद को। और जब मैं ‘खुद’ कह रहा हूँ, और मैं कह रहा हूँ ‘स्वयं को’ पकड़े रहोगे, तो उस ‘स्वयं’ से मेरा आशय क्या है — आत्मा? आत्मा नहीं। वही सब — धूल-कीचड़।

तुमको उठना हो — तो सर को झुकाओ। किसी के सामने मत झुकाओ सर को। कोई ज़रूरी नहीं है कि किसी व्यक्ति के सामने या किसी मूर्ति के सामने या कहीं किसी जगह पर जाकर सर को झुका दिया। लाज में झुका लो भाई — सर को। सच्चाई की अगर यात्रा शुरू कर रहे हो, तो शुरू में ‘लाज’ बड़ी उपयोगी चीज़ है, लज्जा आनी चाहिए।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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