अहंकार से नुकसान क्या?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम अपने अहंकार को जीतने क्यों देते हैं? जैसे आपने अभी बताया हम लोगों को कि हमको अपने मन की गंदगी देखना ज़रूरी है, ये अभी हमको पता चल गया कि ये सही चीज़ है, फिर भी क्यों हम भूल जाते हैं? अहंकार क्यों पनपता है, बढ़ता ही चला जाता है। भूल जाते हैं फिर अपने हिसाब से चलने लगते हैं।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि तुम उसको अहंकार नहीं बोलते न, तुम उसको ‘मैं’ बोलना शुरू कर देते हो।

तुम्हारे हाथ पर गंदगी लगी हो और तुम्हें प्यार आ गया किसी पर, तुम उसके गाल सहला रहे हो, तो अपनी समझ से तो तुम अपने हाथ से उसका गाल सहला रहे हो, ठीक? तुम्हारी बुद्धि तो यही कह रही है कि तुम्हारा हाथ है, उसका गाल है। और बीच में क्या बैठी है? गंदगी। और तुमने उसके गाल पर भी क्या मल दी? गंदगी। अहंकार का ऐसा ही है। तुम उससे जुड़ गए हो नाहक, और ऐसा जुड़ गए हो कि गंदगी को ‘गंदगी’ बोलना भूल गए हो। कहते हो, “ये तो मेरा हाथ ही है।” उसे तुम कोई बाहरी चीज़ समझते तो तुमने उसे कब का छोड़ दिया होता। उसे तुम बाहरी समझते नहीं न। तुमने उसे अपना नाम दे दिया है। और डर तुम्हें ये है कि अहंकार से पृथक तुम्हारा कोई अस्तित्व भी नहीं है।

तुम ये थोड़े ही कहते हो कि, “हाथ है, हाथ से मैल उतर जाएगा, तो भी हाथ तो बचा ही रहेगा न?” तुम्हारे मन में नमूना दूसरा है। तुम्हें लगता है कि बात कहीं प्याज़ के छिलकों जैसी न हो जाए कि एक छिलका उतारा तो दूसरा मिला, फिर तीसरा उतारा, और सारे छिलके उतार दिए तो फिर कुछ बचा ही नहीं। डर तुम्हें बिल्कुल यही है कि परत-दर-परत तुम अहंकार ही हो, और अगर सारी परतें अहंकार की उतार दीं तो तुम गायब हो जाओगे। तुम कहते हो, “भाई, अगर ख़ुद बचे रहना है तो अहंकार को भी बचाए रखो।”

इन परतों का मतलब समझते हो? तुम परत-दर-परत किसी चीज़ से जुड़े हुए हो, अपने-आपको उससे जोड़कर ही देख पाते हो। और तुम्हें लगता है कि जिससे तुम जुड़े हुए हो अगर वो हटा तो सिर्फ़ वो नहीं हटेगा, तुम ही हट जाओगे, तुम ही गायब हो जाओगे। इसलिए तुम उसे हटने नहीं देते जिससे तुम जुड़े हुए हो। इसी को ‘अहंकार’ कहते हैं।

हमारा अहंकार अपूर्ण अहंकार है, अपूर्णता से उठता हुआ, इसलिए वो जुड़ना चाहता है। पूर्ण अहंकार वो होता है जिसे जुड़ने की ज़रूरत नहीं। अहंकार ख़राब नहीं होता, अपूर्ण अहंकार ख़राब होता है।

पूर्ण अहंकार तो कहता है कि, “क्या करना है? ठीक है। हाथ, हाथ है, उसे गंदगी से जोड़ने की ज़रूरत क्या?” गंदगी कभी आ भी गई तो उसे आसानी से धोया जा सकता है। धोते हुए भी रोओगे थोड़े ही कि, “हाय! हाय! हाथ धुल गया!” और गंदगी बही…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org